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मुमुक्षुः- .. यथार्थ ज्ञान तो उसके साथ होता ही है। परन्तु इसके अतिरिक्त यह हितरूप और अहितरूप, अर्थात सुख और दुःख, आश्रयकी अपेक्षासे जो हितरूप है वह मैं हूँ, जो हितरूप नहीं है वह सब मुझसे भिन्न है। अर्थात उत्पाद-व्यय भी इस अपेक्षासे .. क्योंकि उसका आश्रय करने जाय तो वहाँ भी उसे विकल्प उत्पन्न होता है, दुःख उत्पन्न होता है। ज्ञायकका आश्रय करे तो उसे जो प्रयोजन प्राप्त करना है, सुख और शांति प्राप्त होते हैं। इस प्रकार जो श्रद्धामें बल आता है, ज्ञानमें तो..
समाधानः- विचार करनेमें तो कोई दिक्कत नहीं है। एक द्रव्यका ही आश्रय लिया, एक द्रव्य ही आश्रयभूत है। पर्याय तो आश्रयभूत नहीं है। परन्तु उसे ज्ञानमें भले ख्यालमें है कि द्रव्य और पर्याय दोनों द्रव्यका ही रूप है। द्रव्य ही है। परन्तु जो शाश्वत टिकनेवाला है वह आश्रयरूप है। और वह हितरूप इस प्रकार है कि उसका आश्रय लेनेसे पर्यायमें निर्मलता आती है। परन्तु जो उत्पाद होता है, वह सर्वथा अहितरूप नहीं है। उसे ज्ञानमें उतना ख्याल होना चाहिये कि वह सर्वथा अहितरूप नहीं है। उत्पाद तो निर्मल पर्यायका भी होता है। और वह निर्मल पर्याय सुखरूप भी है। क्योंकि जो प्रगट होती है वह सुखका कारण होती है। आनन्दका वेदन पर्यायमें आता है। इसलिये वह सुखका कारण है। अर्थात सर्वथा अहितरूप नहीं है। अमुक अपेक्षासे है।
मुमुक्षुः- आश्रयकी अपेक्षासे अथवा उसका लक्ष्य करनेसे विकल्प उत्पन्न होता है, ऐसी समझनपूर्वक अहितरूप है।
समाधानः- लक्ष्य करना या उसका आश्रय करना वह हितरूप नहीं है, परन्तु द्रव्यका आश्रय करना वही कल्याणका कारण है। वही आश्रयरूप है। उसके आश्रयसे ही सब प्रगट होता है। उसमें कोई भी भाषा (आये), हित-अहित, लेकिन उसे ख्याल रहे कि यह पर्याय, निर्मल पर्याय चैतन्यमें प्रगट होती है। इतना उसे ख्याल होना चाहिये।
भेदज्ञान करे कि यह विभावपर्याय मैं नहीं हूँ, वह तो मेरा स्वभाव ही नहीं है। और उस भेदज्ञानका जो जोर है कि यह द्रव्य और यह विभावपर्याय, इन दोनोंका स्वभावभेद (है)। उसका जो बल है वह बल तो एकदम (होता है)। फिर यह निर्मल पर्याय (होती है), वह कोई अपेक्षासे, मैं शाश्वत हूँ उसका भेदज्ञान, उससे जो भिन्न