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नवीनता है और वही करने जैसा है।
बारंबार ज्ञायक.. ज्ञायक करता हुआ ज्ञायकके पीछे लगकर, यह शरीर तो भिन्न ही है, वह तो जड है। अन्दर विभाव होते हैं वह विभाव भी स्वयंका स्वरूप नहीं है, विकल्पकी कतार चले वह भी स्वयं नहीं है। उससे भिन्न आत्मा कोई अनुपम है। उस आत्माको पहचाननेका प्रयत्न करे वह यथार्थ है, वही जीवनमें करने जैसा है। बाकी सब तो चलते ही रहता है। हेतु एक आत्मार्थका, आत्माका प्रयोजन होना चाहिये। ज्ञायक.. ज्ञायक करता हुआ आगे बढे तो ज्ञायक प्रसन्न हुए बिना नहीं रहता।
मुमुक्षुः- प्रसन्न होता है?
समाधानः- ज्ञायकदेव प्रसन्न होता है। बाहरसे जैसे गुरु प्रसन्न होते हैं, वैसे अन्दर ज्ञायक प्रसन्न हुए बिना नहीं रहता।
मुमुक्षुः- गुरुकी कृपा जैसे होती है, वैसे ज्ञायककी कृपा होती है। समाधानः- हाँ, ज्ञायककी भी कृपा होती है। मुमुक्षुः- अर्थात ज्ञायकका जीवन जीनेकी तैयारी करनी चाहिये। समाधानः- ज्ञायकका जीवन जीनेकी तैयारी करनी चाहिये। वही सत्य है। देव- गुरु-शास्त्रका सान्निध्य, अन्दर ज्ञायकका सान्निध्य कैसे प्राप्त हो, उस ओर कैसे प्रयाण हो, वही करने जैसा है। भले ही यथार्थ बादमें प्रगट होता है, लेकिन उसके लिये स्वयं पुरुषार्थ, महिमा आदि लाकर करे तो हुए बिना नहीं रहता। जिसे मार्ग प्रगट हुआ उन्हें पहलेसे भेदज्ञान नहीं था, पहले एकत्वबुद्धि थी, उसमेंसे ही भेदज्ञान करके आगे बढे हैं।