मुमुक्षुः- जन्माभिषेकके समय देवोंको प्रभुके दर्शनमात्रसे सम्यग्दर्शन हो जाता है और महावीर भगवानने सिंहकी पर्यायमें मुनिराजके थोडेसे शब्द सुनकरके सम्यग्दर्शनको प्राप्त किया। हम आपके श्रीमुखसे सीमंधर परमात्माकी वाणी भी सुनते हैं और महाराजश्रीके दर्शन भी किये, फिर भी हमको सम्यग्दर्शन क्यों नहीं होता?
समाधानः- पुरुषार्थकी मन्दता अपनी है इसलिये। भगवानका निमित्त तो प्रबल है। भगवानके निमित्तसे होता है, परन्तु स्वयं पुरुषार्थ करे तो होता है। भगवानके दर्शनसे सम्यग्दर्शन होता है। भगवानके द्रव्य-गुण-पर्यायको पहचाने वह स्वयंको पहचाने। लेकिन द्रव्य-गुण-पर्यायको पहचाननेवाला स्वयं, स्वयं पहचाने तो होता है। पहचाने बिना होता नहीं।
स्वयंको अंतरमेंसे गहराईसे, मैं यह जाननेवाला ज्ञायक हूँ, मैं ज्ञानलक्षण आत्मा हूँ। मैं ज्ञायक हूँ, यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। उसे अंतरमेंसे पहचाने। भिन्नता करे। द्रव्य पर दृष्टि करके यह मैं, विकल्प मेरा स्वभाव नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ। ऐसा सहज अंतरमेंसे (करे)। ऐसी परिणति पुरुषार्थसे प्रगट करे तो होता है। निमित्त- उपादानका सम्बन्ध ऐसा होता है। उपादान तैयार न हो तो मात्र निमित्तसे होता नहीं। निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। भगवानके समवसरणमें बहुत बार जाता है। परन्तु अपनी तैयारीके बिना सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता। भगवानका निमित्त तो प्रबल है, परन्तु स्वयंकी तैयारी नहीं है। इसलिये नहीं होता है।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- विकल्प करे, लेकिन अंतरमेंसे स्वयंकी उतनी जिज्ञासा, उतनी लगनी, वैसी तैयारी हो तो होता है। तैयारीके बिना होता नहीं। बारंबार विचार करे, बारंबार प्रतीतको दृढ करे। लेकिन अंतरमें उतनी स्वयंको लगनी चाहिये, तो होता है। एक- दो बार विचार कर ले, थोडी देर विचार कर ले, ऐसे नहीं होता है। बारंबार अंतरमेंसे परिणति पलटनी चाहिये, तो होता है। परिणतिका पलटना नहीं होता है, वहींका वहीं खडा हो तो वह तो एक ही दिशा है। दिशा पलटनी चाहिये। दिशा पलटे तो अंतरमेंसे परिवर्तन होता है। उसकी दृष्टि बाहर ही बाहर खडी है। दृष्टि अंतरमें जानी चाहिये।