Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 374 of 1906

 

अमृत वाणी (भाग-२)

३७४

.. इसलिये जबतक आत्माको पहचाने नहीं, अन्दर आत्माकी अनुभूति नहीं होती, .. अनुभूति होनेके बाद भी बीचमें शास्त्र स्वाध्याय आदि होता है। जब तक स्वरूपमें पूर्ण लीनता नहीं हो जाती, स्वानुभूति नहीं होती, वहाँ बीचमें उसकी भूमिकामें शास्त्र स्वाध्याय, वांचन, विचार आदि सब होता है। लेकिन उसमें ज्यादा जानना चाहिये और ज्यादा शास्त्र स्वाध्याय हो तो होता है, ऐसा नियम नहीं है। उसके साथ प्रयोजनभूत ज्ञान तो होना चाहिये।

मुमुक्षुः- अनुभव होनेके बाद भी यह वस्तु चालू रखनी?

समाधानः- यह वस्तु तो होती है, वीतराग नहीं है तब तक मुनिओंको भी स्वाध्याय होता है। मुनि भी शास्त्र लिखते हैं। छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं, स्वानुभूतिमें अंतर्मुहूर्तमें लीन होते हैं, फिर बाहर आते हैं। बाहर आते हैं तब शास्त्र स्वाध्याय होता है, शास्त्र लिखे, उपदेश देते हैं, सब होता है। अशुभभाव गौण होकर शुभभावमें मुनिराज भी रुकते हैं, तो गृहस्थाश्रममें तो वह होता है। और जहाँ आत्मा कौन है, कैसा है, उसका यथार्थ निर्णय, प्रतीति अंतरसे हुआ नहीं हो, उसे तो बीचमें शास्त्र स्वाध्याय, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आदि होता है। परन्तु ध्येय एक आत्माका होना चाहिये कि मुझे शुद्धात्मा कैसे पहचानमें आये? आत्मा निर्विकल्प तत्त्व है, कैसे पहचानमें आये? उसके लिये ज्यादा जाने और बहुत शास्त्रका ज्ञान होना चाहिये, ऐसा नहीं होता। परन्तु प्रयोजनभूत ज्ञान तो बीचमें होता है।

मुमुक्षुः- चौबीसों घण्टे वह मुख्य ध्येय रखकर ही काम करना।

समाधानः- हाँ। ध्येय शुद्धात्मा कैसे पहचानमें आये? चौबीसों घण्टे वही ध्येय रखना।

मुमुक्षुः- उसकी महिमा ज्यादा आनी चाहिये।

समाधानः- आत्माकी महिमा आनी चाहिये। आत्मा ही सर्वस्व है, यह सब निःसार है। परपदार्थमें रुकना, विभाव अन्दर राग, द्वेष, विकल्प आदि मेरा स्वरूप नहीं है। आकुलतारूप है, दुःखरूप है। वह सब निःसार है, सारभूत आत्मा है। उसकी महिमा, उसका रस आदि सब होना चाहिये। ऐसा उसे ध्येय होना चाहिये। आत्मा-शुद्धात्मा अनादिअनन्त शाश्वत है। यह सब जो है, पर्याय विभावपर्याय है, वह मेरा स्वरूप नहीं है। ऐसा ध्येय होना चाहिये।

उसके साथ उसे वांचन, विचार (होते हैं)। अशुभभावसे बचनेको शुभभाव बीचमें होते हैं। नहीं तो अनादिसे कहीं तो खडा होता ही है, या तो शुभमें, या तो अशुभमें। अभी शुद्धात्मा तो प्रगट हुआ नहीं है, शुद्ध परिणति प्रगट हुयी नहीं है, शुद्धात्मामें लीन हुआ नहीं है, इसलिये अशुभमें, शुभमें खडा है। इसलिये गृहस्थाश्रममें अशुभभावोंसे