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बचनेके लिये शुभभाव होते हैं। और ध्यये एक शुद्धात्माका-मुझे शुद्धात्मा कैसे पहचानमें आये?
मुमुक्षुः- अनुभव होनेके बाद जैसे-जैसे अनुभवके विषयमें गहरा ऊतरता जाता है, वही ज्यादा पकड गिननी?
समाधानः- अनुभव होनेके बाद तो उसे मार्ग प्राप्त हो गया। उसकी पूरी दिशा पलट गयी। उसे भेदज्ञानकी धारा प्रगट हो गयी। उसे बाहर तो भी ज्ञायककी धारा प्रगट रहती है। भेदज्ञानकी धारा होती है। मैं ज्ञायक (हूँ)। प्रत्येक कायामें उसे सहजरूपसे ज्ञायक (रहता है)। उसे याद करके रटन नहीं करना पडता। परन्तु कोई भी विकल्प आये या बाहरके कायामें हो, हर समय मैं ज्ञायक.. ज्ञायक.. ज्ञायककी धारा चलती है। और ज्ञायककी ओर परिणति जाती है। अनुभूति तो उसे सहज होती है। वह उसकी दशाके अनुसार होती है। परन्तु उसकी दशाकी दिशा पूरी पलट गयी है। उसकी अंतर दशा पलट गयी है।
मुमुक्षुः- वांचन-विचार करते-करते भी उसे अनुभवका स्वाद आता है?
समाधानः- वांचन-विचारके समय उपयोग उस ओर होता है और (अनुभव होता है), ऐसा नहीं। वांचनकी ओरसे उपयोग पलट जाय और स्वभावमें-स्वरूपमें उपयोग स्थिर हो जाय तो अनुभूति होती है। उपयोग बाहर हो और अनुभूति हो, ऐसी नहीं बनता। उपयोग अंतरमें चला जाय तो होती है। शास्त्र स्वाध्यायमें भले बैठा हो, पुस्तक आदि बाहर पडे हो, परन्तु उपयोग यदि शास्त्रकी ओर हो तो स्वानुभूति नहीं होती। उपयोग अंतरमें चला जाय।
मुमुक्षुः- निद्रा अवस्थामें भी शुद्ध परिणति चालू रहती है?
समाधानः- शुद्ध परिणति चालू रहती है। शुद्धउपयोग नहीं होता।
मुमुक्षुः- शुद्ध परिणति निद्रामें भी?
समाधानः- शुद्ध परिणति निद्रामें भी (चालू है)। ज्ञायक भिन्न निराला ही वर्तता है। निद्रामें भी एकत्व नहीं होता, भिन्न ही रहता है। निद्रा अवस्थामें भिन्न ही रहता है। शरीर भिन्न, आत्मा भिन्न। निद्रामें किसी भी विकल्पमें एकत्व होता नहीं। भिन्न ही भिन्न, शुद्ध परिणति ज्ञायककी (प्रगट है)।
मुमुक्षुः- एक प्रकारसे तो वह जागृत परिणति है, ऐसा है?
समाधानः- जागृत ही है। वह सदा जागृत है। आत्मा कहाँ सोता है? बाहरसे उसे निद्रा अवस्था (होती है), अमुक निद्राका उदय आये तो निद्रामें दिखता है, परन्तु उसका आत्मा सदा जागृत ही है। जागते वक्त तो विशेष जागृत है, परन्तु अंतरमें शुद्ध परिणतिरूप, ज्ञायकरूप जागृत है। उसकी शुद्ध परिणति हाथमें है, द्रव्यदृष्टि है, ज्ञायककी