३७६ धारा है। सब उसे निद्रामें भी होता है।
मुमुक्षुः- उपशम सम्यग्दर्शनमें भी शुद्ध परिणति होती है न? या क्षायिक समकितमें ही होती है?
समाधानः- उपशम सम्यग्दर्शन तो अंतर्मुहूर्त होता है। उसके बाद क्षयोपशम हो जाता है। क्षयोपशम या क्षायिक कोई भी हो, सबमें शुद्ध परिणति चालू रहती है। सबमें शुद्ध परिणति रहती है। एक सम्यग्दर्शनमें शुद्ध परिणति हो और एकमें न हो, ऐसा नहीं है। सम्यग्दर्शनका एक जातिका स्वरूप है।
मुमुक्षुः- क्षायिक और उपशम, दोनोंमें अंतर है?
समाधानः- उपशम सम्यग्दर्शन तो अंतर्मुहूर्त होता है। उसका काल लंबा नहीं है। निर्विकल्प दशामें उपशम सम्यग्दर्शन होता है। सर्व प्रथम होता है तब उसे उपशम कहनेमें आता है। क्षयोपशम और क्षायिक, सविकल्पदशामें दोनों होते हैं। क्षयोपशममें निर्विकल्प भी हो, सविकल्प हो, क्षायिकमें सविकल्प, निर्विकल्प दोनों होते हैं। उपशमकी स्थिति अंतर्मुहूर्तकी है। उपशमकी स्थिति (लंबी नहीं होती)। क्षयोपशम और क्षायिक चलता है।
मुमुक्षुः- लंबे काल तक? परन्तु उपशम सम्यग्दर्शनमें मानो भव पूरा हो जाय, फिर दूसरे भवमेंं, दूसरी गतिमें वह चालू ही रहे ऐसा कोई नियम है?
समाधानः- उपशम चालू नहीं रहता, परन्तु क्षयोपशम या क्षायिक दूसरी गतिमें चालू रहता है। उपशमकी स्थिति ही अंतर्मुहूर्तकी है। दूसरी गतिमें क्षयोपशम सम्यग्दर्शन और क्षायिक सम्यग्दर्शन चालू रहता है। उपयोग और परिणति। परिणति तो निरंतर रहती है। ज्ञायककी परिणति प्रगट हुयी, ज्ञायककी ज्ञायकरूप परिणति प्रगट हुयी वह निरंतर रहती है। और उपयोग तो पलट जाता है। उपयोग बाहर भी हो, उपयोग अन्दर भी हो। बाहर जानता हो, बाहर भी उपयोग हो। और स्वानुभूतिमें लीन हो जाय तो स्वानुभूतिमें उपयोग होता है। उपयोग पलटता रहता है और परिणति तो एक जातकी रहती है। प्रत्येक प्रसंगमें परिणति-शुद्ध परिणति, ज्ञायककी परिणति चालू ही है। ज्ञायकको भूलता नहीं। मैं ज्ञायक ज्ञायक ही (हूँ)।
.. यह शरीर भिन्न और आत्मा (भिन्न है)। दो वस्तु भिन्न है, दो तत्त्व भिन्न हैं। यह शरीर तो जड, कुछ जानता नहीं और जाननेवाला आत्मा है। जाननेवाला आत्मा है उसमें ही सब भरा है। उसमें शांति है, आनंद है, ज्ञान है, सब आत्मामें है। उसे पहचाननेके लिये उसकी महिमा अन्दर आये। बाहर कोई महिमावंत वस्तु नहीं है। वह तो पूर्वके योगसे सब प्राप्त होता है और पूर्वका पुण्य-पापका उदय होता है वैसे सब भिन्न हो जाता है। उसमें अपना कुछ नहीं चलता।