समाधानः- .. शांति आत्माका स्वभाव है और आत्मामें है। बाहर तो कल्पनासे सुख माना है। सुख, शांति बाहर तो नहीं है। जीव अनन्त कालसे शुभभाव करे, बाह्य क्रियाएँ करे, बाहर धर्म मानकर करता है, परन्तु अन्दरकी आकुलता टालनी, वह तो स्वयं अन्दर समझे तो होता है। शुभभाव करे, भले बहुत करे, बाहरसे बहुत करे, उपवास करे, सामायिक करे, प्रतिक्रमण करे, मन्दिर जाय, पूजा-भक्ति सब करे, लेकिन अन्दरमें शांति तो आत्माको पहचाने तो होती है। वह सब तो शुभभाव होते हैं, उन सबसे पुण्य-बन्ध होता है, देवलोक मिले, परन्तु देव तो एक गति है। देव भव अनन्त बार मिले, मनुष्यभव मिला, सब मिला, परन्तु वह सब भव है। भवका अभाव तो आत्माको पहचाने तो होता है।
वह सब शुभभाव पुण्यभाव हैं। उससे आत्मा तो अन्दर भिन्न ही है। भिन्न आत्माको पहचाने तो होता है। शरीर तो जड कुछ जानता नहीं, अन्दर जो विकल्प आये, शुभभाव आये, अशुभभाव आये, सब भाव विकल्प हैं। किसीसे पुण्य बन्धे और किसीसे पाप बन्धे। परन्तु उससे भिन्न जो आत्मा जाननेवाला है, वह ज्ञायक आत्माको पहचाने तो उसमेंसे शांति आती है। परन्तु उसे पहचाननेके लिये, आत्मा ज्ञायक है उसमें शांति है, उसमें आनन्द है, उसे पहचाननेके लिये उसकी रुचि, उसकी जिज्ञासा, उसका विचार करना चाहिये। उसका वांचन (करना चाहिये)। सत्य क्या है, वह स्वयं वांचन, विचार करके स्वयंसे नक्की करे तो होता है। परन्तु स्वयंसे समझे नहीं तो सत्संग करे, जहाँ सच्चा सत्संग मिलता हो, वहाँ वह सत्य जाननेका प्रयत्न करे कि सत्य क्या है? शांति तो अन्दर आत्मामें है, बाहर कहीं नहीं है।
मुमुक्षुः- वह समझ तो हो गयी है, उतना तो समझते हैैं कि यह बाह्य क्रिया है। अंतरकी बात अलग है। आत्माका दर्शन होना चाहिये, वह बराबर है। परन्तु ऐसा सत्संग मिलता नहीं, ऐसी ज्ञानगोष्ठी करनेके लिये विचारोंका आदानप्रदान करें, वहाँ ऐसा कोई (मिलता नहीं)। मैं पढूँ, आगे नहीं बढ पाती हूँ, अटक जाती हूँ, ऐसी सब मनकी परिस्थिति है। इसलिये अन्दर उद्वेग बहुत होता है। करना है, सत्य वस्तु प्राप्त करनी है, सत्य मार्ग पर चढ जाना है, उतनी जिज्ञासा है। सत्य क्या है और असत्य