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मुमुक्षुः- इस समयकी तत्त्व चर्चामें, माताजी! ... आपका और गुरुदेवका आशय तो एक ही होता है। यह शब्द आपके श्रीमुखसे सुने नहीं है। इस वक्त भाईने खास रखा कि देव-गुुरु-शास्त्र भी जड है। तब आपने समयसारजीका आधार देकर कहा, तीसरी भूमिकामें जानेके लिए उसे अपेक्षासे कह सकते हैं।
समाधानः- अपने शुभाशुभ भाव विभाव है, परन्तु निमित्तको झहरका आरोप कैसे किया जाय?
मुमुक्षुः- वह तो अपनी महिमा करानेवाला है, अपना आदर्श है, मुक्तिके मार्गको प्राप्त किया, देव तो मोक्षको प्राप्त हुए हैं, उनके प्रति ऐसा भाव आये बिना नहीं रहता।
समाधानः- शुभाशुभ भाव आकुलतारूप है, अपना स्वभाव नहीं है। वह भाव। परन्तु जो निमित्त है, जिसने स्वभाव प्रगट करके स्वानुभूति प्रगट की और स्वरूपमें रमते हैं, उन पर आत्मार्थीको झहरका आरोप करनेका प्रयोजन क्या है? ग
गुरुदेव तो मार्ग प्रकाशक थे। संप्रदायमें सब क्रियामें पडे थे और सबकी दृष्टि ही विपरीत थी। मुझे कोई पर कर देता है और कर्ताबुद्धि.. कोई भगवान कर देता है। यथार्थ तत्त्व और निश्चयमें वस्तु क्या है, उसे बतानेवाले गुरुदेवने पूरा परिवर्तन (कर दिया)। जोरसे न कहे तो लोगोंकी दृष्टि पलटे नहीं। सबको ऐसा ही हो गया था कि सबकुछ मानो भगवान कर देता है, परद्रव्य कर देता है, ऐसी सब बुद्धि टूटे नहीं, यदि गुरुदेव जोरसे द्रव्यदृष्टिकी बात न करे तो। वे तो मार्ग प्रकाशक थे और साधकदशामें सब ऐसे शब्दप्रयोग करे वह योग्य नहीं है।
मुमुक्षुः- मार्ग प्रकाशककी शैली..
समाधानः- वह अलग होती है। नहीं तो कर्ताबुद्धिमें परद्रव्य कर देता है, वह भाव टूटे नहीं। सब क्रियाकांडमें ऐसे लीन हो गये थे।
मुमुक्षुः- मूल दिगंबर हमको इस बातका पता नहीं था।
समाधानः- हाँ, वह सब ऐसा माननेवाले थे। क्रियाकांड।
मुमुक्षुः- सब क्रियाकांड था।