समाधानः- हाँ, मूल दिगंबर क्रियाकांडमें थे।
मुमुक्षुः- ऐसा प्रहार किये बिना छूटकारा नहीं था।
समाधानः- मार्ग प्रकाशक तो ऐसा ही कहे। ऐसे ही होता है। शास्त्रोंमें सब आता है, अपेक्षासे सब आता है। एक बात स्वयं स्वतंत्र द्रव्य है, वह बात अलग है। उपादानकी दृष्टिकी बात अलग है और यह बात अलग है। उस बात पर वजन देनेका कोई प्रयोजन नहीं है। द्रव्य पर दृष्टि करनेका प्रयोजन है। शुभाशुभ भाव मेरा स्वरूप नहीं है। मैं उससे भिन्न हूँ। ऐसे भावना करके फिर बाहरमें ऐसे शब्द प्रयोग करनेकी (जरूरत नहीं है)। जो मार्ग प्रकाशक न हो उसे ऐसा बोलनेकी कोई जरूरत नहीं है।
मुमुक्षुः- पढना, सुनना (होता है), परंतु निश्चय नहीं हुआ है। वांचनमें किस प्रकारका ध्यान रखना कि जिससे निश्चय हो?
समाधानः- ज्ञायकका लक्ष्य कैसे हो? ऐसी रुचि रखनी। वह आत्माके लिये है न। एक आत्मार्थका प्रयोजन है। आत्माका स्वरूप कैसे समझमें आये? आत्माका निश्चय कैसे हो? सत्य वस्तु कैसे समझमें आये? इस हेतुसे शास्त्रमेंसे स्वाध्याय करे। सत्य वस्तु कैसे ग्रहण हो, इस हेतुसे। आत्मा कैसे समझमें आये? ज्ञायक कैसे समझमें आये? ज्ञायक किसे कहते हैं? ज्ञायकका लक्षण क्या? जानना। वह जानपना कैसे पहचानमें आये? ज्ञायक कैसे पहचानमें आये? यह विभाव क्या? स्वभाव क्या? कैसे पहचानमें आये? द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप क्या? वह समझनेके लिये, आत्माके प्रयोजनके लिये समझना। ज्ञायकका लक्ष्य नहीं हुआ है (तो) उसका लक्ष्य कैसे हो? उसकी रुचि रखना, वह हेतु रखना। शास्त्र मात्र जाननेके लिये नहीं, परन्तु आत्माका स्वरूप कैसे समझमें आये, इस हेतुसे-स्व हेतुसे विचार करना, पढना।
मुमुक्षुः- प्रयोजन आत्माका होना चाहिये।
समाधानः- प्रयोजन आत्माका होना चाहिये। भवका अभाव कैसे हो? बाहरका अनन्त काल सब किया, शुभभाव किये, पुण्यबन्ध हुआ, सब होता है, परन्तु आत्माका स्वरूप कैसे समझमें आये? भवका अभाव कैसे हो? स्वभावका सुख कैसे प्राप्त हो? ऐसा हेतु होना चाहिये।
मुमुक्षुः- अनुमानसे-अनुमान ज्ञानसे आत्मा प्राप्त नहीं हो सकता। समयसारमें तो लक्ष्य-लक्षणका भेद बताकर जो ज्ञानका लक्षण प्रसिद्ध है, उससे अनुमानसे ही लक्ष्य करवाना चाहते है?
समाधानः- वह अनुमानमें ऐसा कहना है कि मात्र ऊपर-ऊपरसे अनुमान किया ऐसे नहीं। परन्तु अन्दर यथार्थ अनुमान, स्वभावको पहचानकर अनुमान। लक्षणसे लक्ष्य