मुमुक्षुः- गुरुदेव निश्चयसे अंधकारमें प्रकाशरूप ही हैं।
समाधानः- अंधकारमें प्रकाश व्याप्त हो गया, गुरुदेव पधारे। गुरुदेव इस जिनशासनमें बिराजते थे, वह एक प्रकाश था, एक प्रभात उदित हुआ। सूर्य समान! लेकिन उन्होंने जो वाणीकी वर्षा की है, बहुत मुमुक्षुओंके हृदयमें जो उपदेश दिया, सबके हृदयमें छा गया है। उसे स्वयं ग्रहण करे तो भी उसमेंसे कल्याण हो ऐसा है।
मुमुक्षुः- जैसे पद्मनंदी आचार्य कहते हैं न कि, ऐसी उपदेशकी जमावट की है, उसके आगे तीन लोकका राज..
समाधानः- तीन लोकका राज (तुच्छ है)। उसके आगे मुझे तीन लोक, मेरे गुरुने जो उपदेशकी जमावट की है, उसके सामने मुझे ये तीन लोकका राज प्रिय नहीं है। इस लोकका-पृथ्वीका राज तो क्या, पृथ्वीका राज तो नहीं, अपितु तीन लोकका राज हो तो भी वह मुझे प्रिय नहीं है। मुझे कुछ नहीं चाहिये। मुझे इस पंचमकालमें एक गुरु मिले और गुरुका जो उपदेश प्राप्त हुआ, उसके सामने सब तुच्छ है। मुझे कुछ नहीं चाहिये। जिस उपदेशकी जमावट गुरुदेवने की है, ऐसी उपदेशकी जमावट करनेवाले इस कालमें मिलना बहुत दुर्लभ है।
मुमुक्षुः- सुनते ही धर्मकी प्रतीति होने लगे।
समाधानः- हाँ, धर्मकी प्रतीति होती है। उनकी वाणी ऐसी थी।
मुमुक्षुः- आपके पास आते हैं तब आपके मुखसे निरंतर ज्ञायक.. ज्ञायक.. ज्ञायक..
समाधानः- सब पूछते हैं इसलिये। करना एक ही है। चारों पहलूसे जानना रहता है, करना एक ही है।
मुमुक्षुः- ज्ञायक और गुरु महिमा।
समाधानः- द्रव्य-गुण-पर्याय, निश्चयनय, व्यवहारनय, द्रव्यानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, कथानुयोग-सबका जानना होता है, जबतक नहीं होता तबतक जानना होता है, लेकिन करना एक ही है-ज्ञायक-ज्ञायकको पहचानना, ज्ञायकको भिन्न करना। ज्ञायक द्रव्य स्वयं एकत्वबुद्धिमें रहा है, उस आकुलतामें (रहा है), उससे भिन्न (पडे), स्वयं भिन्न ही है, परन्तु भ्रान्तिसे एकत्व हो रहा है, उसे भिन्न करके और स्वयं अपने स्वभावरूप परिणमित हो जाये। जो अपना स्वभाव है उस रूप हो जाना, वही उसे करना है। जो अपना स्वभाव है, उस रूप नहीं रहता है और विभावरूप परिणमता है। निज स्वभावरूप हो जाना वही एक करना है। ज्ञायकका ज्ञायकरूप हो जाना। वह कैसे हो? उसकी महिमा आये तो होता है, उसे पहचाने तो होता है। उसे पहचाने, उसकी ओर रुचि लगे, उस रूप जीवन करे, उसकी महिमा आये तो होता है। उसमें थके नहीं होता है। बाहरमें लौकिकका एक ही कार्य करना हो तो उसमें ऐसे ही