४० घूटता रहता है, रसपूर्वक करता रहता है। तो इस ज्ञायकमें थकना नहीं चाहिये, उसका रस कम नहीं होना चाहिये, उसमें रुखापन नहीं आना चाहिये, तो वह आगे बढे।
एक निर्णय उसे अन्दरसे (करना चाहिये)। भले सच्चा निर्णय तो बादमें होता है, सम्यग्दर्शन (होता है तब), परन्तु पहले उसे ऐसा दृढ निर्णय होना चाहिये कि करने जैसा तो यही है, सारभूत तो यही है, बाकी सब निःसार है। ऐसा उसे अन्दरसे आना चाहिये।
मुमुक्षुः- आप एक जगह कहते हो कि शाश्वत वहीं चलने जैसा है।
समाधानः- शाश्वत वहीं जाये, फिर बाहर ही नहीं आना पडे। जो शाश्वत आत्मा है, पर्याय भी उस ओर लीन होकर आगे बढनेपर उसमें समाकर बाहर हीं नहीं आये। "समज्या ते समाई गया'। समा जाते हैं, बस, फिर बाहर नहीं आते। केवलज्ञानी समा गये, साधना बढते-बढते। सम्यग्दर्शन और मुनिदशामें समाकर बाहर (आते थे), पूर्ण समा गये। "समज्या ते समाई गया'।
मुमुक्षुः- यह भी संस्कार एकबार जवाब देंगे, ऐसा लगता है। अभी जो संस्कार पडते हैं, वह संस्कार एकबार अवश्य जवाब देंगे।
समाधानः- गुरुदेवने जो देशना दी, वह जो संस्कार पडे, अन्दरसे स्वयंकी भावना हो, स्वयं उस ओर जाता हो, स्वयंकी परिणति उसे चाहती हो, उसे प्रगट हुए बिना नहीं रहता। स्वयं है, दूसरा कोई नहीं है। स्वयंको परद्रव्यकी इच्छा हो तो परद्रव्य स्वयंके हाथकी बात नहीं है। ये तो स्वद्रव्य स्वयं ही है। स्वयं ही उसे चाहता हो, स्वद्रव्यको, वह प्रगट हुए बिना रहे ही नहीं। बारंबार उसके संस्कार ग्रहण करे।
एक शुभभाव आये तो उसका ऐसा पुण्यबंधन होता है कि जो पर बाहर है, जिनेन्द्र देव, गुरु और शास्त्र भी प्राप्त हो जाते हैं। तो फिर ये ज्ञायकदेव क्यों नहीं प्राप्त होंगे?
मुमुक्षुः- आपने कहा है न, भावना हो तो फले बिना रहती ही नहीं।
समाधानः- भावना फले बिना रहती ही नहीं।
मुमुक्षुः- एक शुभभावमें परपदार्थ नहीं मिल सकता, वह भी प्राप्त हो जाता है।
समाधानः- वह भी प्राप्त होता है, वह अपने हाथकी बात नहीं है। तो भी जो स्वयंकी अन्दरसे भावना है, वह भावना.. शुभभाव ऐसी जातिके होते हैं कि जिनेन्द्र देव, गुरु और शास्त्र आदि सब प्राप्त होते हैं। लौकिक इच्छा हो वह अलग बात है। उसमें पापका कारण बनता है।
मुमुक्षुः- वहाँ स्वयंका अधिकार भी नहीं है।