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समाधानः- वह तो नहीं प्राप्त हो, ऐसा होता है।
मुमुक्षुः- बहिनश्री कहते हैं कि इसमें भी अधिकार नहीं है, फिर भी शुभभाव..
समाधानः- इसमें भी अधिकार तो नहीं है, तो भी..
मुमुक्षुः- प्राप्त होता है। तो ज्ञायक क्यों नहीं?
मुमुक्षुः- तू पारम है और परमात्मा नहीं कहते हैं, तू परमात्मा है और परमात्मा कहते हैं।
समाधानः- पामर नहीं है आत्मा। गुरुदेव तो कहते हैं, तू परमात्मा है। गुरुदेव तो सबको भगवान ही कहते थे। तू पामर है, ऐसा तो पर्यायमें कहनेमें आता है, द्रव्य पामर नहीं है। गुरुदेव कहते हैं, द्रव्य तो तेरा पूर्ण भरा है। परमात्मा ही हो। परमात्मामेंसे परमात्मा होता है। पर्याय अपेक्षासे पामर है।
भावनावाला ऐसा कहता है कि मैं पामर हूँ। प्रभु! मुझ पामरको आपने प्रभु बनाया, ऐसा कहे। परन्तु अपनेमें प्रभुता भरी है, उसमेंसे प्रभुता आती है।
मुमुक्षुः- ज्ञानमें ऐसा विवेक साथमें रखना चाहिये।
समाधानः- ज्ञानमें विवेक आये बिना रहता ही नहीं। स्वयंकी परिणतिमें जो लाभ हो उसप्रकारसे, ऐसी नम्रता आये बिना रहती ही नहीं। पर्यायमें अधूरापन है, उसे देखता है कि पर्यायमें अधुरापन है। द्रव्यदृष्टिसे द्रव्य परिपूर्ण है, परन्तु पर्यायमें अधुरापन है, इसलिये पामर हूँ, ऐसा कहे। भेदज्ञानकी धारा प्रगट हो, सम्यग्दर्शन हो तो भी कहे कि मैं पामर हूँ। अभी साधकदशा मुनिदशा नहीं है। गृहस्थाश्रममें है। प्रभु! मैं पामर हूँ। पर्यायमें अभी अस्थिरता है, उसे आगे करके कहता है। स्वानुभूतिके पंथ पर स्वानुभूति प्रगट हुई, तो भी पर्याय अपेक्षासे ऐसा कहते हैं।
द्रव्यकी अपेक्षासे कहते हैं कि मैं प्रभु हूँ। सब अपेक्षा समझनी है। अपेक्षा अनुसार उसकी परिणति.. जैसा वस्तुका स्वरूप है ऐसा समझना है। उसी अपेक्षासे। जैसा वस्तुका स्वरूप है, उसी अनुसार अपेक्षा होती है। ऐसी ही उसकी अपेक्षा होती है। उस अपेक्षासे उसका ज्ञान वैसा ही कार्य करे, जैसा वस्तुका स्वरूप है, ऐसा ज्ञान, ऐसी साधना। द्रव्य पर दृष्टि और ज्ञान सब विवेक करता है। जैसा वस्तुका स्वरूप है, उसी अनुसार उसका मुक्तिका मार्ग, साधकका मार्ग उसप्रकारसे चलता है।
विवेक यानी मात्र विवेक करना है ऐसा नहीं है। उसमें उसकी वैसी द्रव्य और पर्यायकी परिणति है। पर्यायमें अधुरापन है और द्रव्य पूर्ण है, ऐसा वस्तुका स्वरूप है। इसलिये अब ज्ञान-सम्यकज्ञान करता है।
मुमुक्षुः- वही विवेक है।
समाधानः- वह विवेक है।