Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-२)

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... अल्प ज्ञानमें भी नक्की कर सके ऐसा है। जो गुरुदेवने समझाया है, तत्त्वकी बात, बहुत अपूर्व मार्ग समझाया है। अल्प ज्ञानमें भी मैं भगवान हूँ, ऐसा नक्की कर सकता है। विचार करके जिसे जिज्ञासा लगनी हो वह विचार कर सकता है। जो मूल तत्त्व अनादिअनंत शाश्वत है, उसमें कोई विभाव नहीं हो सकता, वह तो शुद्ध है। उसमें पर निमित्तसे जो विभाव राग-द्वेष आदि होते हैं, वह अपना स्वरूप नहीं है। जिससे दुःख हो, जिससे स्वयंको आकूलता हो, वह अपना मूल स्वभाव नहीं है। वह तो पर निमित्तसे स्वयंके पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है। इसलिये जो आकूलता होती है, वह अपना (मूल स्वरूप नहीं है)।

लेकिन जो स्वरूप सुखरूप हो, जैसे स्वयंका ज्ञानस्वरूप है, वह ज्ञान जाननेवाला है, जाननेवाला है वह अनादिअनंत है। वह जाननस्वरूप है वह उसे दुःखरूप नहीं है। जाननेवालेमें सुख, आनन्द आदि अनन्त गुण भरे हैं। और जो अनादिअनंत तत्त्व है, उसमें जो ज्ञान है वह पूर्ण होता है। जो जाननेवाला है, उसकी कोई सीमा नहीं होती। जो जाननेवाला है वह पूर्ण जाननेवाला है। जो तत्त्व है वह पूर्ण स्वभावसे भरपूर ही होता है। उसमें कोई अपूर्णता (नहीं है)। स्वतःसिद्ध आत्मामें अपूर्णता होती ही नहीं। पूर्ण भगवान जैसा है।

जैसे अग्निमें उष्णता है, तो उसका उष्ण स्वभाव है। यह दृष्टांत है। पानीका शीतल स्वभाव है, तो उसकी शीतलता कितनी है? उसकी कोई मर्यादा नहीं है। उष्णता- जो उष्ण है वह उष्ण (बेहद ही होती है)। जो जाननेवाला है, वह स्वयं जाननेवाला ही है। पूर्ण जाननेवाला है। उसमें इतना जाने और इतना नहीं जाने ऐसी अल्पता उसमें नहीं है। परन्तु वह विभावकी ओर गया है, इसलिये ज्ञानकी शक्ति अटक गयी है। बाकी मूल शक्तिमें पूर्ण भरा हुआ है।

यदि राग-द्वेष छूटकर, एकत्वबुद्धि छूटकर, उससे स्वयं भिन्न होकर ज्ञायककी परिणति प्रगट हो, उसकी श्रद्धा-प्रतीत हो और उसमें लीनता करे तो उसका ज्ञानस्वभाव पूर्ण प्रगट होता है। ज्ञानसे पूर्ण है, उसी तरह आनन्दसे पूर्ण है, ऐसे अनन्त गुणोंसे पूर्ण है। उसे सीमा नहीं होती। जो तत्त्व स्वयं स्वतःसिद्ध है, जिसे किसीने बनाया नहीं है, वह पूर्ण ही होता है, उसमें अल्पता नहीं होती। स्वयं विचार करे, उसकी प्रतीत करे, सूक्ष्मतासे विचार करे कि वह पूर्ण ही है, भगवान जैसा आत्मा है। जैसे भगवान हैं, वैसा स्वयं है। प्रत्येक आत्मा सिद्ध भगवान समान ही है। उसमें अपूर्णता नहीं है।

... जाना पडे, सुख या आनन्द बाहर लेने जाना पडे, उसे तत्त्वकी पूर्णता नहीं कहते। स्वयं तत्त्व स्वतःसिद्ध पूर्ण ही होता है। उसमें सब पूर्ण भरा है। तत्त्वका सूक्ष्म