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दृष्टिसे विचार करे तो समझमें आये ऐसा है। तत्त्व है वह कभी नाश नहीं होता। वह किसीसे उत्पन्न नहीं हुआ है, जो किसीसे नाश नहीं होता। ऐसा पूर्ण ज्ञानस्वभाव ज्ञायक, ऐसा आनन्द स्वभाव, ऐसा चैतन्यदेव परिपूर्ण है। वह भगवान ही है। परिपूर्ण शक्ति (संपन्न) स्वयं भगवान है।
उसमें जिसमें विभाव नहीं है, जिसमें मलिनता नहीं है, जिसमें अपूर्णता नहीं है। उसकी ज्ञानशक्ति बाहर जाती है इसलिये अटकी हुई दिखायी देती है, बाकी परिपूर्ण (है), निज स्वभावसे परिपूर्ण भगवान जैसा है। चैतन्यस्वरूप भगवान हैं, वैसा ही स्वयं है। जैसे सिद्ध भगवान हैैं, वैसा ही स्वयं है। प्रत्येक आत्मा समान हैं।
मुमुक्षुः- आलम्बन लेना माने क्या?
समाधानः- आलम्बन यानी उसकी दृष्टि, उसपर दृष्टि देनी। वह स्वयं ही है। स्वयं ही स्वयंका आलम्बन करना। स्वयं ही है, उसे आलम्बन लेने जाना नहीं पडता, वह तो स्वतःसिद्ध स्वयं ही है। स्वयंको अपना आलम्बन कैसे लेना? जो दृष्टि बाहर है, वह दृष्टि बाहरमें जैसे यह शरीर मैं हूँ, विभाव मैं हूँ, ऐसा हो गया है। दृष्टि पलटकर मैं ये नहीं हूँ, मैं तो शुद्धात्मा हूँ, इसप्रकार दृष्टि उसपर स्थापित करनी कि ये चैतन्य है वही मैं हूँ। उसे शुद्धात्माको ग्रहण किया ऐसा कहनेमें आता है। उसे ग्रहण किया, उसका आलम्बन लिया।
मुमुक्षुः- ... अभिप्रायका विषय कहते हैं? ध्यानका विषय कहते हैं? कि ज्ञानका विषय है?
समाधानः- ज्ञान और दृष्टि दोनों उसमें आते हैं। ध्यान तो साथमें (होता है), लीनता करे तो ध्यान होता है। .. सामान्य स्वयं .. है, ज्ञान साथ रहता है। ज्ञानमें विशेष जानना होता है। दृष्टि एक अभेदको ग्रहण करे कि मैं यह आत्मा हूँ। यह अस्तित्व है वह मैं हूँ, इसप्रकार ग्रहण करे। दृष्टिके साथ ज्ञान आ जाता है। लेकिन जो विशेष जानता है वह ज्ञान है। दृष्टि विशेष नहीं जानती। दृष्टि सामान्य जानती है। और दृष्टि श्रद्धाका विषय है। श्रद्धा, उसमें-दृष्टिमें श्रद्धा होती है।
मुमुक्षुः- कोई-कोई उसे अंधी कहते हैं, यह बात बराबर नहीं है?
समाधानः- अंधी यानी श्रद्धाका विषय है, उस अपेक्षासे अंधी। दृष्टि कुछ जानती नहीं, परन्तु उसके साथ ज्ञान जुडा ही रहता है। ज्ञान और दृष्टि दोनों अलग नहीं होते। दोनों साथ ही रहते हैं। दृष्टि सामान्य पर जाती है इसलिये उसे अंधी कहते हैं। वह भेद (नहीं करती), भिन्न-भिन्न भेद करे या पर्यायको भिन्न करके नहीं जानती। इसलिये उसे अंधी कहते हैं।