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सहज जहाँ जाती हो, ऐसे याद आता है।
... (नक्की) नहीं होता कि ऐसा ही आये या ऐसा ही आये। मन सहितके जो उसके भव है, उसमें उसे सहजरूपसे याद आये।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! गुरुदेवश्रीका एक बोल ऐसा आता है कि अनुभूति होनेसे और जातिस्मरणज्ञान होने पर ... अनेक प्रकार उन्हें स्पष्ट हो गये।
समाधानः- कहाँ आता है? वह सब कहनेकी बात है। श्रद्धा-ज्ञानसे आत्माको पहचाने, स्वरूपकी प्रतीति करे कि मैं ज्ञायक हूँ। उस ओर उसकी श्रद्धा दृढ हो, ज्ञायककी परिणति हो, ज्ञान उस ओर जाय, लीनता उस ओर हो वह साधकदशाका मार्ग है। उसमें उसकी लीनता बढती जाय। उसमें बीचमें कोई निर्मलताकी परिणति बढने पर जो प्रकार होने होते हैं, वह होते हैं। प्रयोजन तो एक आत्माकी ओर जानेका है।
ज्ञायककी परिणति दृढ हो, भेदज्ञानकी धारा उग्र हो, ज्ञायककी परिणतिकी उग्रता हो और अन्दर स्वरूपकी लीनता बढती जाय, विभावसे न्यारा होता जाय, स्वरूप परिणतिकी दृढता होती जाय। यह एक ही मार्ग है। उसमें बीचमें जिस प्रकारकी परिणतिकी निर्मलता होती हो वह होती है। जिसकी जिस प्रकारकी परिणति हो (वैसे होता है)।
मुमुक्षुः- आजका दिन ऐसा मंगल है, ..
समाधानः- वह कोई बार-बार कहनेकी बात है? सहज जब आये तब आये। वह तो उस दिन भगवान हर जगह विराजमान होते थे, वह प्रसंग था, उस प्रसंग पर कुछ निकल गया। सब जगह भगवान विराजमान होते थे, वह प्रसंग था इसलिये..।
मुमुक्षुः- आज इस प्रकारका प्रसंग है। भाव जातिस्मरण...
समाधानः- उस जातका याद आवे तो स्पष्ट हो, जिस जातका याद आवे वैसा। स्वयं जानते थे कि स्वयं तीर्थंकर होनेवाले हैं। उनका हृदय ही बोलता था। स्वयं तीर्थंकर होनेवाले हैं। तीर्थंकरका द्रव्य स्वयं हैं। और भगवानने कहा। उनको अंतरसे लगता था। उनको स्वयंको तीर्थंकरत्वकी भनक आती थी। यह भरतक्षेत्र, यहाँ तो अभी सबके अभिप्राय... गुरुदेव यहाँ पधारे और मार्गका प्रकाश किया। सबको सत्य मार्ग मिला। मार्ग कहाँ कौन जानता था?
केवलज्ञान तो अभी नहीं है, भावलिंगी मुनि भी अभी तो दुर्लभ हो गये हैं। गुरुदेव पधारे तो यह सब जाननेको मिला। यह मार्ग अलग है, अंतरमें रहा है। साधकदशा अंतरमें, सब अंतरमें है। ज्ञान, श्रद्धा आदि सब अंतरमें है। पहले तो सब सम्यग्दर्शन बाहरसे मानते थे, सब ज्ञान बाहरसे मानते थे, चारित्र बाहरसे मानते थे। सम्यग्दर्शन अंतरमें स्वानुभूतिकी दशामें प्रगट होता है, ज्ञान भी अंतरमें है और चारित्र भी अंतरमें