३९६ है। गुरुदेवने स्पष्ट कर-करके स्पष्ट (किया है)। कहीं भूल न रहे ऐसे ललकार कर- करके कहा है कि शुभभाव करते-करते होगा, ऐसा नहीं होगा। अंतरमें तो तू भिन्न ही हो जा। इतना तो रखूँ, ऐसे भी नहीं। इतना जोरदार कहा है। सबके अभिप्राय अन्दरसे बदल गये।
मुमुक्षुः- माताजी! जातिस्मरणज्ञानमें ... भवका जानना हो परन्तु आपका पूर्व भवका जातिस्मरणज्ञान है महाविदेहक्षेत्रका, तो आजके दिन सबको ज्यादा भावना हो कि आपके श्रीमुखसे भगवानका वर्णन, समवसरणका वर्णन अथवा दूसरा कुछ हम सुनें तो हम सबको आनन्द हो।
समाधानः- वह जब आता है तब थोडा आ जाता है। वह सब कोई कहनेकी बात थोडे ही है।
मुमुक्षुः- आजके दिन सब अपेक्षा तो रखे ना।
समाधानः- अपेक्षा रखे, लेकिन जितना कहनेमें आये उतना ही कहनेमें आता है, दूसरा कुछ कहनेका नहीं है। लोगोंको एक प्रकारका आश्चर्य होता है। अन्दर आत्माका करना वह मुख्य है।
मुमुक्षुः- प्रयोजन तो सुखका है, परन्तु ऋद्धि बीचमें सहज प्रगट हो जाती है, तो उस ऋद्धिका बहुत बार ज्ञानी साधकको भी ऐसा राग आता है, तो हम सबको तो ऐसी इच्छा हो न कि माताजी कुछ कहे।
समाधानः- ऋद्धिको जाननेका राग नहीं, परन्तु भगवानकी भक्ति है। ऋद्धि जाननेका राग नहीं है। भगवानका क्या वर्णन, उस समवसरणका क्या वर्णन (करना)? वह सब शास्त्रोंमें आता है। बाकी भगवान तो भगवानका क्या वर्णन (करना)? जगतसे भिन्न- न्यारे भगवान (हैं)। जो वीतरागी है, जिनका चलना अलग, जिनका बोलना अलग, जिनका बैठना अलग, जिनकी वाणी अलग, जगतसे सब अलग ही है। अंतरमें तो भिन्न हो गया, परन्तु बाहर भी अलग हो गया।
मुमुक्षुः- शास्त्रमेंसे सुने और एक प्रत्यक्ष पुरुषके पास सुने तो उसमें फर्क तो पडता है न? आप थोडे खुल्ले हृदयसे बात करें तो हमें..
समाधानः- खुल्ला कुछ नहीं कहना है। जितना कहना होता है, उतना कहते हैं।
मुमुक्षुः- भगवानका इतना बडा देह होगा, समवसरणमें कैसे विराजमान होंगे?
समाधानः- .. यहाँ कल्पनामें आता है? यहाँ तो रत्न दिखाई भी नहीं देते हैं। वह रत्नका समवसरण कहाँ कल्पनामें आ सके ऐसा है? जो देवों द्वारा रचित। देव भी यहाँ दिखाई नहीं देता। देवोंका आवागमन और मुनिओंका समूह, कल्पनामें