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आना मुश्किल पडे ऐसा है। मुनिका दिखना मुश्किल पडता है। मुनिओंका, साधकोंका समूह यहाँ कहाँ दिखाई दे ऐसा है? रत्नका समवसरण, वह रत्न यहाँ कहाँ दिखाई देते हैं? पाँचसौ धनुषका देह, उसके वृक्ष, उसके गढ कहाँ कल्पनामें आ सके ऐसा है।
मुमुक्षुः- माताजी! कभी थोडा ज्यादा सुननेकी इच्छा होती है न।
समाधानः- यहाँ कुछ कल्पनामें आ सके ऐसा नहीं है। जहाँ दूसरे कोई मत नहीं है, जहाँ दूसरा संप्रदाय, वाडा नहीं है, जहाँ भगवान कहे वही बात फैल रही है। वाणी सुनते वक्त कितने ही अंतर्मुहूर्तमें सम्यग्दर्शन, कितने ही केवलज्ञान, कितने ही मुनि (दशा) प्राप्त कर रहे हैं, वह काल पूरा अलग है। यहाँ एक सम्यग्दर्शनकी दुर्लभता है। वहाँ मुनिदशा क्षण-क्षणमें (आती है)। सब त्यागकर छोडकर चल देते हैं। भगवानकी वाणी सुनते हैं। वह धर्म काल... यहाँ गुरुदेवके प्रतापसे इतना हो रहा है।
... गुरुदेवने तत्त्व बहुत समझाया। एक ज्ञायक आत्माको समझो। एक आत्मा भगवान है। विभाव भी अपना स्वभाव नहीं है। ज्ञायक आत्माको पहचानो, यह सब गुरुदेवने बताया। शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्र और भीतरमें शुद्धात्मा ज्ञायक, जो निर्विकल्प तत्त्व है उसे पहचानो। गुरुदेवने इसका बहुत विस्तार कर-करके सूक्ष्म-सूक्ष्म न्यायादिसे बताया है। उनकी वाणी अपूर्व थी, आत्मा अपूर्व, उनका ज्ञान अपूर्व, सब अपूर्व ही था। ऐसा कहनेवाले कोई दिखनेमें नहीं आते हैं। तीर्थंकरका द्रव्य था जो भरतक्षेत्रमें पधारे, सबके कल्याणके लिये पधारे।
मुमुक्षुः- इस बातको कहनेवाला कोई नहीं था। स्वप्नमें भी नहीं।
समाधानः- अलौकिक। उतनी वाणी इतनी जोरदार व अपूर्व थी, सुननेसे आत्माका आश्चर्य लगे, आत्माकी महिमा आये, ऐसी उनकी अपूर्व वाणी थी। द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप, कर्ता-कर्मका स्वरूप, निमित्त-उपादानका स्वरूप, सब गुरुदेवने स्पष्ट करके बताया। पहले तो सब क्रियासे धर्म होता है, शुभभावसे धर्म होता है, ऐसा सब मानते थे। गुरुदेवने ऐसा परिवर्तन अंतर दृष्टि करके सबको (जागृत किया)। भीतरमें आत्मामें सब है, स्वभावसे सब प्रगट होता है। स्वभावमेंसे स्वभावकी पर्याय भीतरमेंसे आती है। गुरुदेवने सब स्पष्ट करके बताया है।
मुमुक्षुः- आत्म धर्म यहाँसे प्रकाशित करके आपने महान उपकार किया है।
समाधानः- गुरुदेवने कहा, उस मार्ग पर चलना वहीं करना है, आत्माका कल्याण (करना है)। आत्माका स्वरूप समझकर, भेदज्ञान करके, आत्मद्रव्य पर दृष्टि करनी वही करना है। गुरुदेवने जो मार्ग बताया, उसी मार्ग पर चलना है। अन्दर स्वानुभूति, भवका अभाव सब ज्ञायकको पहचाननेसे होता है। पुरुषार्थ तो स्वयंको करना है, पुरुषार्थ तो करनेसे होता है। आत्मा ज्ञायक जाननेवाला, शुभाशुभ भाव भी अपना स्वभाव नहीं