अमृत वाणी (भाग-२)
३९८ है। उससे भेदज्ञान करके ज्ञायकके स्वभावको पहचानकर, उसकी प्रतीत-श्रद्धा, उसमें लीनता करना वही मुक्तिका मार्ग है, वही प्रगट करना है, जीवनमें वही करनेका है।
मुमुक्षुः- भरतजीने कैलास पर्वत पर स्थापना की, आपने भी साक्षात स्थापना की। ... यह सुनकर जिसको कंटाला आता है.. यह तो जो .. साक्षात करके दिखाया। यह काम कोई बूरा नहीं किया, सबसे बढिया कार्य किया। यह हमारे मनके .. हुआ।
समाधानः- सबकी भावना हुयी, सब मुमुक्षुओंको। क्या करे? किसीको अच्छा लगा, किसीको नहीं भी लगा। सबकी भावना हुयी तो ऐसा (हो गया)।
प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!
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