समाधानः- ... मैं मेरे आत्माका करुँ। यह विभाव राग-द्वेषकी तरफ... पुरुषार्थ यानी अपनी भावनामें तो मैं कुछ करुँ, ऐसा आता है। मैं पुरुषार्थ-बल रखुँ तो राग- द्वेषकी ओर... लेकिन उसके भावमें तो ऐसा है, उसका अर्थ तो यह होता है कि आत्मार्थीके हृदयमें ऐसा आता है कि मैं मेरी तरफ मुडं। वह भले .. हो, परन्तु आत्मार्थीको तो वह भावना (होती है)। वह पुरुषार्थका अर्थ ऐसा है कि मैं कुछ करुँ। फिर उसके साथ ... स्वयंको ऐसा क्यों रखना चाहिये कि यह पुरुषार्थ .. है, सब .. है, तो मैं क्या करुँ? स्वयंको ऐसा क्यों रखना चाहिये?
मुमुक्षुः- पुरुषार्थ ही अगत्य है।
समाधानः- पुरुषार्थके साथ उन सबका मेल है। पुरुषार्थ, आत्माका स्वभाव, जो होनेवाला हो वह होगा, उन सबका मेल है। अकेला क्रमबद्ध, क्रमबद्ध है सही, कोई ऐसा माने कि पुरुषार्थ भी क्रमबद्ध (है)। परन्तु पुरुषार्थका भाव ऐसा निकलता है कि मैं कुछ करुँ। करुँ ऐसी भावना यदि वह छोड दे और जो होनेवाला होगा वह होगा, ऐकान्त ऐसा ले ले, तो तो फिर अनादिका संसार भी होनेवाला है। जो होनेवाला है वह होगा, ऐसा एकान्त पकड ले, एकान्त ऐसा ही ले-ले कि जो होनेवाला है वैसे होता है। राग-द्वेष होनेवाले थे वह हुए, मैं क्या करुँ? मुझसे कुछ नहीं होगा। वह तो होनेवाला हुआ। ऐसे ले लिया तो उसे संसार ही होनेवाला है।
मुमुक्षुः- राग-द्वेषके समय भी अपने आत्मामें जुडे तो नहीं होते।
समाधानः- जुडे तो राग-द्वेष नहीं होते। ऐसा फिक्स होता है। जो आत्मा अपनी आत्मामें जुडता है, उसे राग-द्वेष नहीं होता। ऐसे फिक्स होता है। परन्तु फिक्स ऐसा नहीं है कि स्वयं जुडे नहीं और जैसा होनेवाला होगा वह होगा, ऐसे छोड दे तो संसार ही होनेवाला है। फिर राग-द्वेष कभी कम नहीं होंगे। जो होनेवाला था वैसा हुआ, मैं क्या करुँ? जो होनेवाला है वह हुआ, उसके साथ अपने आत्माके साथ जुडान करे, वह उसके साथ फिक्स जुडा है। अपनी भावनामें तो (ऐसा होता है कि), मैं कुछ बल करुँ, मैं आत्माकी ओर जाऊँ, ऐसी भावना हो, उसके साथ फिक्स जुडा हुआ है।