४०६ निःशंकतासे उसे ऐसा योग बना कि भगवानके दर्शन हुए। परन्तु अंतरसे निःशंकता प्रगट करे तो सम्यग्दर्शन होता है। भगवानके दर्शन हुए, अकृत्रिम चैतालय मेरु पर्वत पर मुनि मिले। मुनिका उपदेश सुना। अंतरमेंसे निःशंकता गुण प्रगट किया। अंतर ज्ञायकको पहचाना, इसलिये वह अंतरमें उतर गया।
गुरुका वचन प्रमाण रखे। गुरुने बहुत समझाया, गुरुने उपदेश दिया। गुरुका वचन प्रमाण किया कब कहा जाय? गुरुके वचन प्रमाणसे आगे बढ सकता है। परन्तु गुरुका जो आशय है, उस आशयको ग्रहण करे। मुनिने अंजन चोरको उपदेश दिया, उस उपदेशको अन्दर ग्रहण किया। जो निःशंकतासे उपर जाता है वह तो व्यवहारसे निःशंकता है। ऐसे गुरुका वचन प्रमाण करके, गुरु क्या कहना चाहते हैं, आशय ग्रहण करे तो आगे जाता है।
गुरु ऐसा कहना चाहते हैं कि, तू तेरे ज्ञायकको पहचान। तू सबसे भिन्न (है)। यह विभाव तेरा स्वभाव नहीं है। तू ज्ञायक (है)। यह शरीर तू नहीं है। अंतरमें मैं यह ज्ञायक ही हूँ। गुरुदेवने जो कहा कि तू ज्ञायक जाननेवाला (है)। ऐसा गुरुदेवने कहा, ये रहा मैं ज्ञायक। गुरुदेवने जो ज्ञायक कहा, उस ज्ञायकको स्वयं पहचाने। ज्ञायक मैं ज्ञायक ही हूँ, यह सब मुजसे पर भिन्न है। विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। गुणभेदमें, कोई भेदमें रुकना, पर्यायभेदमें रुकना वह मेरा पूरा स्वरूप नहीं है। अखण्ड स्वरूप अनादिअनन्त अखण्ड ज्ञायक हूँ। गुणभेद, पर्यायभेद द्रव्यमें लक्षणभेदसे सब भेद है, परन्तु मैं अखण्ड शाश्वत स्वरूप, स्थायी स्वरूप मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा गुरुदेवने कहा है, उसे ग्रहण करे। और उसमें निःशंक गुण प्रगट करे कि यह ज्ञायक ही मैं हूँ। ऐसे स्वयं अंतरमेंसे पहचाने तो उसे सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है।
गुरुदेवने तो बहुत कहा है। अनन्त कालमें सब मिला है। सत्य स्वरूप समझानेवाले कोई मिले नहीं। गुरुदेव मिले तो स्वयंने पहचाना नहीं। गुरु मिलने मुश्किल है। शास्त्रमें आता है न, "यम नियम संयम आप कियो, पुनि त्याग विराग अथाग लह्यो'। सब किया, लेकिन एक आत्माको नहीं पहचाना। उसका कोई अलग स्वरूप है, सदगुरुदेव उसका स्वरूप बताते हैं। सदगुरुदेव मिलने मुश्किल है।
गुरुदेव जो बताते हैं उसे स्वयं ग्रहण करे तो वह आगे बढता है। स्वयं ग्रहण न करे तो आगे नहीं जा सकता। गुरुदेव बारंबार कहते हैं कि तू ज्ञायक, तू भगवान आत्माको पहचान। उसे स्वयं ग्रहण करे तो आगे जा सकता है। शास्त्रमें आता है कि यह तेरा पद नहीं है। यह पद तेरा नहीं है, यह तेरा पद नहीं है, इसमें रहने जैसा नहीं है। यहाँ आओ, यहाँ आओ, यह अपद है, अपद है। ऐसे तेरा पद ज्ञायक है, ऐसा गुरुदेव कहते थे। यह विभाव तेरा स्वभाव नहीं है। यह तेरा रहनेका घर