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मुमुक्षुः- राग और त्रिकाली ज्ञायक स्वभावके बीच सन्धि है, वहाँ प्रज्ञाछैनी पटकनेसे भिन्न किया जा सकता है, ऐसा समयसारमें आता है। तो सन्धि जैसा कुछ दिखाई नहीं देता है, तो कैसे भिन्न करना?
समाधानः- त्रिकाल स्वभाव और राग स्वभाव न? बीचमें सन्धि है। स्वयं पहचाने तो हो न। ज्ञायक स्वभाव जाननेवाला और यह राग दोनों भिन्न वस्तु है। जाननेवाला जो त्रिकाल ज्ञायक जाननेवाला है, जाननेवाला सो मैं और राग भिन्न है। राग वह राग ही। रागका वेदन ही अलग जातिका है और ज्ञानका भिन्न जातिका है। ज्ञान जाननेवाला है, ज्ञानमें राग नहीं है, ज्ञान तो वीतरागी है, जाननेवाला है, उसका जानना स्वभाव है और रागका वेदन भिन्न उसकी आकुलताका वेदन भिन्न है। अन्दर गहराईमें जाकर देखे, सूक्ष्म होकर देखे तो ज्ञान तो ज्ञान है, ज्ञान राग रहित वीतरागी ज्ञान है। यह तो राग है। रागकी आकुलता और रागका वेदन अलग है और ज्ञानका वेदन अलग जातिका है। उसे स्वयं पहचान सकता है, वह उसकी सन्धि है। ज्ञान जो जाननेवाला वह मैं और राग भिन्न, उसे लक्षणसे पहचाने, वह दोनोंकी सन्धि है। सन्धि दिखाई दे ऐसी है। (गहराईमें) जाय तो सन्धिको पहचान सके ऐसा है। प्रज्ञाछैनीसे अपने ज्ञायकको पहचान सकता है।
... मार्ग, स्वानुभूतिका मार्ग ज्ञायकका अभ्यास करनेसे होता है। शुभभाव तो उसके साथ रहता है। स्वभावको पहचाने, स्वभावकी महिमा लगे, स्वभावकी लगनी लगे तो होता है। दिन और रात उसे चैन नहीं पडे, मुझे ज्ञायक कैसे प्रगट हो? जागते, सोते, स्वप्नमें ज्ञायककी लगनी लगे तो होता है। ऐसे तो नहीं हो सकता है।
मुमुक्षुः- विचारमें ..
समाधानः- विचारमें क्या, लगनी लगे तो विचार आये। बिना लगनीके नहीं होता है। मैं ज्ञायक हूँ, मैं जाननेवाला हूँ। सिर्फ बोलनेसे क्या होता है? भीतर विचार करे तो भी भीतरमें ज्ञायककी लगनी लगे तो होवे। ऐसे नक्की करना कि मैं ज्ञायक ही हूँ। ज्ञान लक्षणसे पहचाना जाता है, पहचाननेमें आता है। तो भी उसकी लगनी तब होता है। पहले निर्णय करना कि मैं ज्ञानस्वभावी हूँ। परन्तु ज्ञानस्वभावीका प्रयत्न कैसे