हो? कि लगनी लगे तो प्रयत्न हो सकता है, बिना लगनीके नहीं हो सकता है। मात्र बोलनेसे या ऐसे ही रटने नहीं होता है।
यथार्थ समझे, यथार्थ। स्थूल ऊपर-ऊपरसे समझनेसे नहीं होता है। यथार्थथ स्वभावका लक्षण पहचानकर, भीतरमेंसे उसकी लगनी लगे तो होता है। ऐसे नहीं हो सकता। रटने मात्रसे या बोलने मात्रसे नहीं होता है। वह तो ठीक है कि ऐसा विचार करे तो भी अच्छा है, लेकिन विचारके साथ उसकी महिमा लगे, विभावका रस छूट जाय, तभी होता है।
मुमुक्षुः- पूज्य माताजी! स्वानुभूतिके कालमें जो आनन्द आता है वह सर्वांगसे आता है या अमुक प्रदेशोंमें आता है?
समाधानः- सर्व गुणांश सो सम्यग्दर्शन। सब गुणोंका अंश निर्मल होता है। अमुक प्रदेशके साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। असंख्य प्रदेशी आत्मा है। उसमें सर्व गुणांश सो सम्यकत्व। सर्व गुणोंका अंश उसमें निर्मल होता है। शास्त्रमें आता है कि मनका निमित्त होता है। परन्तु मनका विकल्प तो गौण हो जाता है। ऐसे दो भाग नहीं हो जाते। सर्व गुणांश सो सम्यग्दर्शन। सर्व गुणोंका अंश उसमें प्रगट होता है। उसके प्रदेशका खण्ड (नहीं होता)। अमुक प्रदेशमें आवे, अमुक प्रदेशमें नहीं आता, (ऐसा नहीं है)। वह तो कहनेमें आता है कि मन द्वारा हृदयकमलमें होता है, परन्तु उसमें सर्व गुणांश सो सम्यग्दर्शन, सर्व गुणोंका अंश प्रगट होता है। वह तो निमित्तसे कहनेमें आता है कि मन.. मन तो, विकल्प तो गौण हो जाता है-विकल्प तो छूट जाता है।
मुमुक्षुः- सर्वांगसे आनन्दको जानते भी है।
समाधानः- आनन्दको जानता है।
मुमुक्षुः- सर्वांगसे जानता है?
समाधानः- सर्वांगसे जानता है। ... केवलज्ञान तो हुआ नहीं। स्वानुभव एक साधक दशाकी प्रगट हुयी है। परन्तु जाननेमें आता है। उसका प्रदेश पर ध्यान भी नहीं है। कौनसे प्रदेशसे आया और कौनसे प्रदेशमें नहीं आया, प्रदेशके खण्ड पर उसका ध्यान भी नहीं है। आत्मा अखण्ड है। आत्मामें कोई खण्ड होता नहीं। क्षेत्रका खण्ड वास्तविकमें होता ही नहीं। उसका प्रदेश पर ध्यान भी नहीं है। मैं सर्वांशसे जानता हूँ कि सर्व प्रदेशसे जानता हूँ, उसका प्रदेश पर ध्यान नहीं है, क्षेत्र पर ध्यान नहीं है।
स्वानुभूति, उसके स्वभावमें लीनता हुयी, ज्ञानस्वभाव ज्ञायकमें लीनता हुयी। प्रदेश पर ध्यान है वह भेद पर दृष्टि है। ऐसे भेद पर उसकी दृष्टि नहीं जाती है। उसमें सहज जान लेता है। गुण, पर्याय सब जाननेमें आता है। प्रदेश भिन्न, यह भिन्न ऐसी