Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-२)

४२४ भिन्नता पर उसका ध्यान भी नहीं है। जो होता है,.... प्रदेशका खण्ड नहीं होता है।

मुमुक्षुः- पूज्य माताजी! एक प्रश्न और है। ज्ञानीको निश्चय-व्यवहरका सुमेल होता है, तो अशुभके कालमें व्यवहारका सुमेल होता है?

समाधानः- क्या? ज्ञानीको...

मुमुक्षुः- निश्चय-व्यवहारका सुमेल रहता है, जब अशुभका काल रहता है, उस कालमें व्यवहारका सुमेल कैसे बनेगा? अशुभभाव हो उस वक्त व्यवहारका सुमेल किस प्रकार है?

समाधानः- जानता है। द्रव्यदृष्टिसे स्वभाव पर दृष्टि है, ज्ञानमें जानता है कि शुभाशुभ भाव सब व्यवहार है। साधकदशा व्यवहार है। दर्शन, ज्ञान, चारित्रकी जो निर्मल पर्याय प्रगट होती है, वह भी व्यवहार है, भेद व्यवहार है और शुभाशुभ भाव है वह भी व्यवहार है। अशुभभाव भी व्यवहार है और शुभभाव भी व्यवहार है। अशुद्धनिश्चयनयसे शुभभाव और अशुभाव, अशुद्ध निश्चयनयसे चैतन्यकी पर्यायमें होते हैं, उसको व्यवहार कहनेमें आता है। वह सब व्यवहार ही है। व्यवहार साथमें है। शुभ-अशुभ दोनों व्यवहार है। एक शुभ व्यवहार है ऐसा नहीं है, अशुभ भी व्यवहार है।

पाँचवे गुणस्थानमें अणुव्रतका होता है, चौथे गुणस्थानमें देव-गुरु-शास्त्र आदिका शुभभाव रहता है, उस भूमिकाके योग्य शुभभाव रहता है। साधकदशाके साथमें शुभभाव रहता है, उसके योग्य अशुभभाव रहता है, जो उसकी भूमिका है। उसके योग्य रहता है। ज्ञायकको भूलकर, ज्ञायकको छोडकर उसको अशुभभाव नहीं होता है। ज्ञायकको भूल गया और अशुभवमें एकत्वबुद्धि हो गयी, ऐसा ज्ञानीको नहीं होता है। भीतरमें अनंतानुबंधीका रस टूट गया, चौथे गुणस्थानमें अनंतानुबंधीका रस टूट गया तो ज्ञायककी मर्यादा तोडकर अशुभभावमें ऐसा नहीं चला जाता कि ज्ञायककी मर्यादा टूट जाय, ऐसा नहीं होता। अशुभभाव आवे तो भी भेदज्ञानकी धारा तो बनी रहती है। भेदज्ञानकी धारा अशुभभावमें भी रहती है और शुभभावमें भी रहती है। दोनोंमें रहती है। उसके योग्य शुभभाव आता है और अशुभभाव भी उसकी भूमिकाके योग्य होता है।

ज्ञायककी मर्यादा तोडकर उसमें एकत्व नहीं होता। ज्ञायककी परिणति चलती रहती है। अशुभभाव होवे तो भी ज्ञायकका भेदज्ञान चालू ही रहता है। ऐसे अशुभभाव उसको मर्यादा तोडकर नहीं होता है। जैसा अज्ञानीको होता है, वैसा उसको नहीं होता है। उसे गौण हो गया है, नहीं हो सकता। ऐसा मेल रहता है। भूमिकाको तोडकर ऐसा अशुभभाव भी नहीं होता है। साधकदशामें ऐसी संधि रहती है। द्रव्यदृष्टिकी मुख्यता और साथमें व्यवहार, भूमिकाके योग्य शुभ और अशुभ दोनों हुआ करते हैं।

मुमुक्षुः- दोनोंमें क्या अंतर है?