४ है और ज्ञानकी हयाती, आनन्दकी हयाती सबकी हयाती उसमें साथमें आती है।
मुमुक्षुः- सबके भाव ...
समाधानः- सबके भाव उस हयातीमें समा जाते हैं। हयातीमें अकेली हयाती नहीं आती, उसमें सब भाव साथमें आ जाते हैं। अनन्त गुणके भाव अस्तित्वके साथ आते हैं।
मुमुक्षुः- आत्मस्वरूप, सहज आत्मस्वरूप ... मुश्किल लगता है, फिर भी आत्माका स्वयंका स्वरूप है, जितना बोलनेमें सहज दिखता है, उतना सहज नहीं दिखता है।
समाधानः- स्वभाव सहज है, इसलिये स्वयं सहज है। अनादिसे विभावमें पडा है इसलिये सहज नहीं दिखता। ज्ञान, आनन्द, अस्तित्व आदि उसके सभी गुण अनादि अनन्त सहज है। सहज वस्तु स्वयं है, उसे किसीने बनायी नहीं है। अब, जो स्वभाव होता है वह सहज होता है। स्वभावकी उत्पत्ति करनी पडे ऐसा नहीं है, वह तो स्वभावरूप ही है। स्वभावकी ओर जाना, अपने स्वभावमें जाना वह सहज है। उल्ट विभाव (असहज है)।
पर पदार्थको अपना करना, वह मुश्किल है। वह मेरा-मेरा करता ही रहता है, लेकिन अपना होता नहीं। कैसे हो? जो अपना नहीं है। जड और चैतन्य दोनों भिन्न- भिन्न हैैं। भिन्न हो वह एक कैसे हो? जड अपना होता नहीं। परन्तु चैतन्यको स्वयंको ग्रहण करके अपनेरूप होना हो तो वह सहज है। अपने स्वभावरूप परिणमना वह सहज है।
पानी शीतल है, पानीको शीतलतारूप परिणमना सहज है। पानी अग्निके निमित्तसे गर्म हुआ, परन्तु गर्म होनेका बाद उसे शीतल होना सहज है। क्योंकि वह अग्निसे भिन्न पडे इसलिये वह शीतल हो ही जाता है। उसे शीतल होना सहज है। पानीको गर्म रखना दुर्लभ है। परन्तु शीतल होना सहज है।
अनन्त काल गया तो भी वह शरीररूप नहीं हुआ। वह मुश्किल है, क्योंकि वह तो परपदार्थ है। उसके साथ रहा तो भी वह जडरूप नहीं हुआ। वह मुश्किल है। और अपनी ओर झुकना, वह यदि स्वयं ज्ञायकको ग्रहण किया तो अल्प कालमें स्वानुभूति (होती है)। यदि अंतरसे ग्रहण करे तो स्वानुभूति और केवलज्ञान अल्प कालमें प्रगट करता है। क्योंकि स्वयंका स्वभाव है। उसके लिये अनन्त काल नहीं चाहिये। इसमें तो अनन्त काल गया फिर भी अपना होता नहीं। और यहाँ स्वयंको ग्रहण किया तो उसे ग्रहण करनेके बाद अनन्त काल जाता ही नहीं। अल्प भवमें केवलज्ञानकी प्राप्ति करता है। इसलिये स्वयंको ग्रहण करना और स्वयंकी प्राप्ति करना सहज है।
मुमुक्षुः- इसलिये सहज और सुलभ है। अपनी ओर मुडे तो तुरन्त...