६ आप कहते हो कि पानी...
समाधानः- पुरुषार्थ करे तो सहज होता है। पर-ओरका उसे आसान हो गया है। आत्माका दुर्लभ हो गया। आत्माका सुलभ है, करे तो होता है। प्रथम भूमिका विकट है, परन्तु वह आगे जाये तो सहज है और सुगम है।
पानी पानीके प्रवाहको खीँचता ढालवाले मार्गमें (सहज चला जाता है)। ज्ञान- भेदज्ञानके मार्ग पर यदि स्वयंने अपनी परिणतिको मोड दिया, विवेकके मार्गमें भेदज्ञानकी ओर यदि मुड गया तो भेदज्ञानकी डोर ऐसी है, द्रव्यदृष्टिकी डोर हाथमें आ गयी। स्वयं स्वयंको अपनी ओर खीँचता हुआ अपनी ओर एकदम जल्दी चला जाता है।
... धरसेनाचार्यको ऐसा हुआ कि कोई आवे तो... स्वप्न आया था। उन्हें क्षयोपशम कितना! कंठस्थ था फिर भी याद हो जाता था। पहले लिखनेका नहीं था। फिर उन्होंने लिखा। लिपिबद्ध किया। भावलिंगी मुनिराज आचार्य उनकी क्या बात करनी!
मुमुक्षुः- माताजी! सबसे पहले लिखा गया है, इसके पहले लिखनेकी ... यह कैसे..?
समाधानः- ऐसा क्षयोपशम था, लिपिबद्ध करनेका। उनकी शक्ति थी। लिखनेका उनको क्षयोपशम था। लिखनेकी कला तो सबको आती है, परन्तु अन्दर शक्ति उतनी है कि लिखनेकी आवश्यकता नहीं। फिर ऐसा लगा कि कालदोषके कारण सबके क्षयोपशम ऐसा होता जाता है इसलिये लिपिबद्ध किया। पहले चतुर्थ कालमें सब कला सबको आती थी। शक्ति इतनी थी कि लिखनेकी जरूरत नहीं पडती थी। सब याद हो जाता है। उसमेंसे ज्ञान प्रगट हो जाता था। बारह अंगका ज्ञान भीतरमेंसे हो जाता था। लिखने- पढनेसे नहीं होता है, भीतरमेंसे हो जाता है।
बादमें सबका क्षयोपशम मन्द हुआ, आचार्यको विचार हुआ कि किसीको याद नहीं रहता ऐसा क्षयोपशम हो गया है, इसलिये लिपिबद्ध किया। शास्त्र लिखनेकी शक्ति तो थी। कैसे शास्त्र रचे! कितनी बात षटखण्डागममें! उनके क्षयोपशमकी क्या बात करनी! उनकी-आचार्यकी दशाकी क्या बात!!
मुमुक्षुः- .. आपसे कई बार सुनते हैं फिर भी भूल जाते हैं, माताजी!
समाधानः- .. अभ्यास करना, उसका आशय ग्रहण करके बारंबार भीतरमें ऊतारनेसे होता है। शब्द याद नहीं रहे, भूल जाय तो भी उसका भाव याद रहे, आशय ग्रहण करनेसे हो सकता है। इतना क्षयोपशम तो होता है कि आशय ग्रहण हो सके। शिवभूति मुनिको तो इतने शब्द भी याद नहीं रहते थे। उनके गुरुने कहा कि मा-रुष, मा- तुष, उतना भी याद नहीं रहा। भीतरमेें उन्होंने आशय ग्रहण कर लिया कि मेरे गुरुको ऐसा कहना था कि दाल और छिलका (भिन्न है)। (एक औरत दाल) धोती थी।