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वैसे ज्ञायक आत्मा भिन्न है और विभाव, विकार सब भिन्न-जुदा है। ऐसा आशय ग्रहण कर लिया। मारुष, मातुष याद नहीं रहा और मासतुष हो गया। शब्द भूल गये, परन्तु आशय ग्रहण हो गया। यह विभाव परिणति मेरा स्वभाव नहीं है, मैं तो ज्ञायक हूँ, जाननेवाला हूँ, ऐसा मेरे गुरुने कहा था। आत्मा भिन्न है। भिन्न है उसका आशय ग्रहण करके, ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ज्ञायककी परिणति प्रगट करके भीतरमें इतनी लीनता हो गयी कि सम्यग्दर्शनमें ज्ञायक तो ग्रहण हो गया और उतनी दृढ प्रतीति हुयी और लीनता भी उतनी हो गयी। चारित्र भी इतना हो गया कि अंतर्मुहूर्तमें केवलज्ञान प्रगट हो गया।
इस प्रकार आशय ग्रहण करनेसे होता है। शब्दकी वहाँ जरूरत नहीं पडती। थोडा भी आशय ग्रहण कर ले तो हो सकता है। सब शास्त्रका ज्ञान होवे, सब होवे तो अच्छा है, इसमें लाभका कारण होता है। विचारनेमें द्रव्य-गुण-पर्यायका, उत्पाद-व्यय- ध्रुवका स्वरूप विचार करनेमें, आत्माका स्वरूप विस्तारसे समझनसे लोभ होता है। तो भी याद न रहे तो भी प्रयोजनभूत तत्त्वको समझ ले तो भी हो सकता है।
मुमुक्षुः- माताजी! प्रयोजनभूत तत्त्वोंको सुगमतासे समझनेके लिये सबसे सरल शास्त्र कौन-सा है?
समाधानः- सरल उपाय तो एक आत्माको ग्रहण करे। मुमुक्षुः- कौन-सा शास्त्र सरल है? समाधानः- भेदज्ञानकी बात जिसमें आती हो, वह शास्त्र सरल है। परन्तु समयसारमें सब आ जाता है। तो भी उसका रहस्य बतानेवाले तो गुरुदेव थे। शास्त्र तो थे, परन्तु उसका रहस्य आचार्यदेव क्या कहते हैं? इन सबका रहस्य तो गुरुदेवने बताया है। समयसार शास्त्रमें तो सब आ जाता है। ज्ञायककी बात, स्वभावकी, विभावकी सब, कर्ता-अकर्ता सब बात उसमें (आती है)। मुक्तिके मार्गमें प्रयोजनभूत सब बात समयसारमें स्वानुभूतिकी सब बात आ जाती है।