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मुमुक्षुः- हम सब इस निमित्तसे आये हैं। भगवानकी भक्ति, भगवानको विराजमान करनेके पीछे मूल प्रयोजन क्या होना चाहिये?
समाधानः- मुमुक्षुको ऐसा देव-गुरु-शास्त्रका आये बिना रहता ही नहीं। जगतमें सर्वोत्कृष्ट महिमावंत जिनेन्द्रदेव, गुरु एवं शास्त्र हैं। जिनेन्द्रदेवने जो आत्माको प्रगट किया है, जो आत्मा सर्वोत्कृष्ट महिमावंत आत्मा है, वह आत्मा प्रगट किया, ऐसे जो तीर्थंकर भगवान, उन्होंने जो मार्ग बताया वह मार्ग स्वयंको ग्रहण करना है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा करके, जो भगवानने प्रगट किया, जो गुरुदेवने साधना की, गुरुदेवने जो मार्ग बताया, शास्त्रमें जो तत्त्वका स्वरूप आता है, वह सब ग्रहण करना है।
आत्मा कैसा है? आत्माका स्वरूप-आत्मा कोई अनुपम, उसकी महिमा कोई अलग है, वह कैसे पहचाना जाये? उसे पहचाननेका स्वयंको प्रयत्न करना है। और वह जब तक पहचानमें न आये तब तक शुभभावमें श्रावकोंको जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्रकी महिमा आये बिना नहीं रहती। श्रावक गृहस्थाश्रममें हैं, तब तक अशुभभावसे बचनेको जिनेन्द्रदेवके उत्सव, जिनेन्द्रदेवकी प्रतिष्ठाएँ (आदि भाव आते हैं)।
पद्मनंदि आचार्यदेव शास्त्रमें लिखते हैं कि जो श्रावक होते हैं, उन्हें जिनेन्द्रदेवके उत्सव, जिनेन्द्रदेवकी प्रतिष्ठाएँ, गुरुकी सेवा, गुरु जो मार्ग बताये उसका श्रवण, मनन, शास्त्रका चिंतवन आदि सब श्रावकोंको होता है। लेकिन उसमें हेतु (होता है कि) आत्मा कैसे पहचाना जाय? अशुभभावसे बचनेको वैसे शुभभाव आते हैं। परन्तु शुद्धात्मा कैसे पहचाना जाये? अन्दर जो शुभभाव हैं, उसके साथ जो ज्ञायक है, वह ज्ञायक उससे भिन्न है। वह शुद्धात्मा कैसे पहचाना जाये? वह ध्येय और उसके अन्दर हेतु यह होना चाहिये।
मेरी जो आत्माकी साधना है, वह साधना आगे कैसे बढे? अथवा यथार्थ साधना कैसे प्रगट हो? पहले जिज्ञासा, लगनी आदि (होते हैं)। परन्तु यथार्थ साधना, आत्माकी ओर दृष्टि, द्रव्य पर दृष्टि कैसे हों? आत्माका ज्ञान कैसे हो? द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप कैसे पहचानमें आये? वह सब लगनी, जिज्ञासा लगनी चाहिये। उसके साथ-साथ, जब तक वह नहीं हो, तब तक देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा उसे आये बिना रहती नहीं। परन्तु अन्दर हेतु यह शुद्धात्मा सर्वोत्कृष्ट महिमाका भण्डार ऐसा आत्मा, वह आत्मा कैसे पहचानूँ? उसका चिंतवन, मनन साथमें होना चाहिये।
गृहस्थाश्रममें भरत चक्रवर्ती आदि थे, उनको भी देव-गुरु-शास्त्रकी (भक्तिका भाव आता है)। जिनेन्द्र देवका उत्सव करे, प्रतिष्ठाएँ, गुरुकी सेवा, गुरुकी वाणी सुने आदि सब था। परन्तु अन्दर उन्हें आत्मा न्यारा ही न्यारा, भिन्न जानते थे और क्षण-क्षणमें