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मुमुक्षुः- देव-गुरु-शास्त्रके विषयमें जो निर्णय होता है और अनुभूतिके बाद देव- गुरु-शास्त्रका निर्णय, उसमें तो फर्क नहीं पडता।
समाधानः- .. निर्णय होता है, परन्तु अनुभूतिके बाद जो उसकी लाईन है वह अलग है।
मुमुक्षुः- देव-गुरु-शास्त्रके विषयमें भी..
समाधानः- सब अलग है। भिन्न पड जाये और बादमें उसकी जो प्रतीत होती है, देव-गुरु-शास्त्र पर जो भाव आये, वह भिन्न रहकर कैसे आती है, वह तो श्रद्धा जोरदार होती है। वह सब भिन्न परिणतिमें आता है, वह अलग कहनेमें आता है। पहले आता तो है।
जो द्रव्यलिंगी मुनि होता है, उसे देव-गुरु-शास्त्रकी ऐसी श्रद्धा होती है कि चलायमान करने आये तो भी चलित नहीं हो। ऊपरसे इन्द्र आये, चाहे जितने उपसर्ग, परिषह आये, ऐसी उसकी श्रद्धा होती है। यद्यपि उसे आगे जानेमें तो उसमें उसने मान लिया है, परन्तु ऐसी श्रद्धा होती है। देव-गुरु-शास्त्रमें ऐसा अडिग होता है। और ये जिज्ञासु है वह भी अडिग होता है।
भेदज्ञानपूर्वककी धारासे जो आता है, उसकी लाईन अलग है। उसे जो शुभभाव आता है, उसकी रस-स्थिति होती है वह अलग होती है। उसकी स्थिति कम होती है और रस अधिक होता है। भेदज्ञानपूर्वक ऐसा होता है। (जिज्ञासुको) भेदज्ञान हुआ नहीं है, भले ही भावना है। लेकिन उसमें अभी ये सब फेरफार नहीं होते हैं। उसकी परिणति न्यारी हो गयी है तो रस, स्थिति सबमें फेरफार हो जाता है। और शुभभाव ऐसे उच्च होते हैं तो भी स्थिति लम्बी नहीं पडती। रस अधिक होता है।
अंतरसे सर्वस्वता नहीं होती, परन्तु भक्ति आदि सब बहुत आती है, ऐसा दिखायी दे। प्रथम भूमिकामें उसे भक्ति आये। देव-गुरु-शास्त्रके लिये उपसर्ग, परिषह सहन करनेके लिये तैयार हो, ऐसा होता है। उसे ऐसा होता है।
समाधानः- इतने शास्त्र कंठस्थ किये, तत्त्वार्थ सूत्र या (अन्य), वह ज्ञान हो गया, ऐसा सब मानते थे। अन्दर आत्मामें सब भरा है, आत्माके द्रव्य-गुण-पर्याय और