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तो दोनों होते हैं।
मुमुक्षुः- सामान्य अवलोकनमें तो वह भेद नहीं पाडता।
समाधानः- भेद नहीं पाडता, वह तो सत्तामात्र (ग्रहण करता है)। सत्तामात्र अवलोकन उसमें आता है। ज्ञानमें भेद आता है। ज्ञान सामान्यको जानता है, ज्ञान विशेषको जानता है। ज्ञान सबको जानता है। दर्शनमें सत्तामात्र आता है।
मुमुक्षुः- दर्शन स्वसंवेदन न लगाकर ज्ञानका स्वसंवेदन ऐसा बार-बार जिनागममें आता है कि यह अनुभूति ज्ञान स्वसंवेदनसे होती है।
समाधानः- ज्ञानका स्वसंवेदन.. दर्शनकी बात उसमें लेते नहीं है। सामान्य उपयोग है इसलिये ज्ञानकी बात लेते हैं। ज्ञान विशेष है इसलिये। दर्शन तो साथमें रहता है। इसलिये ज्ञानकी बात लेते हैं। ज्ञान विशेष है न। सामान्य और विशेष दोनोंको जानता है। दर्शन समान्य होता है इसलिये उसकी बात नहीं आती है, ज्ञानकी बात आती है।
... दोनों साथमें रहते हैं। परिणति तो चलती रहती है। उपयोग भले बाहर जाये तो भी परिणति जो स्वसन्मुख अमुक परिणति आंशिक हो वह परिणति श्रद्धाकी परिणति, स्वानुभूतिकी या बाहर आये सविकल्प दशामें तो भी अमुक परिणति चलती रहती है। उपयोग भले बाहर जाये। ज्ञायककी ज्ञायकरूप परिणति शुद्ध परिणति अमुक अंशमें प्रगट हुयी है, वह चलती रहती है। उपयोग भले बाहर जाय। अमुक लब्धमें, उसकी अमुक परिणति चलती रहती है।
मुमुक्षुः- दोनोंकी साथ चलती होगी? निर्विकल्प प्रतीतिरूप तो श्रद्धाकी है और निर्विकल्प दशामें जितनी शुद्धिका अंश बढा उतनी प्रतीतिरूपके साथ स्थिरतारूप...
समाधानः- प्रतीतिरूप और स्थिरतारूप परिणति चलती रहती है। उसमें ज्ञान जो अमुक उघाडरूप रहता है, उपयोगरूप भले नहीं रहता है तो भी। लब्धरूप कहते हैं न? लब्ध है यानी गुप्त है ऐसा नहीं, परन्तु लब्ध यानी अमुक उघाडरूप उसकी परिणति रहती है। उपयोग भले बाहर जाये तो भी ज्ञानकी रहती है, प्रतीतकी रहती है, चारित्रकी रहती है। शुद्ध परिणति रहती है।
मुमुक्षुः- ऐसी दशा सहजपने चलती रहती है?
समाधानः- सहजपने चलती रहती है। सहज पुरुषार्थ है। सहज यानी उसकी कृतकृत्य दशा हो गयी ऐसा नहीं, परन्तु सहज पुरुषार्थ चलता है। ऐसा सहज पुरुषार्थ स्वसन्मुख (चलता है)। अमुक परिणति तो सहजरूप चलती है, उसके साथमें पुरुषार्थ भी रहता है। साधकदशा है तो सहज पुरुषार्थ तो साथमें रहता है।