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समाधानः- .. स्वीकार किया तो सही, अंतरमेंसे उसे शुद्ध पर्याय प्रगट हो तो उसने स्वीकार किया है। त्रिकाल शुद्ध द्रव्य स्वयं सर्व प्रकारसे शुद्ध है। उसका स्वीकार किया है। अन्दर वैसी उस प्रकारकी अंतरमेंसे प्रतीत प्रगट हो, उसकी शुद्ध पर्याय प्रगट हो, उसकी स्वानुभूति प्रगट हो तो उसने वास्तविक रूपसे स्वीकार किया है। नहीं तो उसने बुद्धिसे विचार करके स्वीकार किया है।
सत्य स्वीकार तो उसे कहते हैं कि त्रिकाली द्रव्य पर बराबर यथार्थ श्रद्धा हो कि मैं तो अनादि अनन्त शुद्ध, सर्व प्रकारसे शुद्ध हूँ। पारिणामिकभाव अनादि अनन्त शुद्ध है। द्रव्य-गुण-पर्याय सर्व प्रकारसे शुद्ध है। वैसे प्रगट पर्यायमें शुद्धता है। सर्व प्रकारसे शुद्ध है, ऐसी प्रतीत उसे दृढ हो और उस प्रकारकी परिणति प्रगट हो तो उसने स्वीकार किया है। उसकी दृष्टि द्रव्य पर जाती है। ज्ञानमें सब जानता है। दृष्टि द्रव्य पर जाती है और ज्ञायककी भेदज्ञानकी परिणति, ज्ञायककी ज्ञायकधारा प्रगट हो, स्वानुभूति हो तो उसने स्वीकार किया है।
द्रव्यकी दृष्टिमें द्रव्य, गुण, पर्यायका भेद करके नहीं जानता है। वह तो एक द्रव्य पर दृष्टि रखी है। उसमें उसे सब साथमें आ जाता है। बाकी उसे भिन्न नहीं है। भेद करके दृष्टि भेद नहीं करती। ज्ञानमें सब जानता है।
मुमुक्षुः- ज्ञान भी वर्तमानमें अभेद हो जाता है उस कालमें तो।
समाधानः- स्वानुभूतिके कालमें तो ज्ञान अभेद यानी ज्ञान स्वयंको जानता है, ज्ञान अपने गुणोंको जानता है, अपनी पर्यायको जानता है। उपयोग जो बाहर जाता था वह नहीं जाता है। बाकी स्वयं स्वको जाने, अपने गुणोंको जाने, अपनी पर्यायोंका जानता है। दृष्टि अभेद है, परन्तु ज्ञान तो सब अभेद-भेद दोनोंको जानता है। द्रव्य स्वयं अनादि अनन्त है। उसमें गुणका भेद वस्तुभेद (रूप) नहीं है, परन्तु लक्षणभेद है। उसे पर्यायमें अंश-अंशीका भेद है। वह जैसा है वैसा द्रव्यका स्वरूप ज्ञान बराबर जानता है।
स्वानुभूतिके कालमें अभेद हो जाता है इसलिये वह कुछ जानता नहीं है, ऐसा नहीं है। गुण, पर्याय आदि ज्ञान कुछ नहीं जानता है, ऐसा नहीं है। स्वानुभूतिके कालमें