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मुमुक्षुः- आत्माकी अनुभूतिका स्वाद कैसा है?
समाधानः- आत्माकी अनुभूतिका स्वाद, उसकी कोई उपमा नहीं हो सकती है। आत्मानुभूतिकी कोई उपमा नहीं है। वह तो अनुभव तत्त्व है। जड पदार्थकी उपमा चैतन्यको मिल नहीं सकती। विभावका, कोई रागका, कोई देवलोकके देवोंका या किसीकी भी उपमा उसे लागू नहीं पडती। वह तो अनुपम है। चैतन्यतत्त्व कोई आश्चर्यकारी तत्त्व है। उसका स्वाद अनुपम, उसका ज्ञान अनुपम, अगाध ज्ञानसे भरपूर, एक समयमें लोकालोकको जाननेवाला, ऐसी अनंत शक्ति (है)। अनन्त गुणोंसे भरपूर अदभुत अनुपम अनन्त गुणोंसे भरपूर (है)। वह बोलनेमें कोई उपमामें नहीं आता है।
मुमुक्षुः- जिसने स्वाद चखा वही जाने, दूसरा नहीं जान सकता।
समाधानः- उसकी उपमा नहीं हो सकती है। वह तो अनुपम अमृत स्वाद। अनुपमकी उपमा नहीं होती। विकल्प छूट गया, निर्विकल्प स्वरूप आत्मामें लीन हो गया, उसका स्वाद वही जानता है। जगत-दुनियासे कोई अलौकिक दूसरी दुनियामें चला जाता है।
मुमुक्षुः- अलौकिक जीवन है ज्ञानीका!
समाधानः- हाँ, अलौकिक है।
मुमुक्षुः- अज्ञानी थोडी पहचान सकता है।
समाधानः- ... स्वानुभूति हो सकती है, सम्यग्दर्शन हो सकता है।
मुमुक्षुः- इस जीवको भावसंवर कैसे प्रगट हो?
समाधानः- भावसंवर तो.... सबका एक ही मार्ग है। सबका एक ही है। जब ज्ञायकको पहचाने तब संवर होता है। सबकी एक ही बात है। मुक्तिका मार्ग एक ही है। संवरका मार्ग, निर्जराका मार्ग, सम्यग्दर्शन, सबका मार्ग... जो मार्ग सम्यग्दर्शनका, वही मार्ग चारित्रका, सब एक ही मार्ग है, दूसरा नहीं है। एकमें कोई दूसरा मार्ग और दूसरेमें दूसरा मार्ग ऐसा नहीं है।
आत्मा ज्ञायकको भेदज्ञान कर (पहचाने)। "भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन'। जो सिद्ध हुए वे भेदविज्ञानसे हुए, नहीं हुए वे भेदविज्ञानके अभावसे नहीं हुए। एक ही मार्ग है। भेदज्ञान करके आत्माको पहचाने, द्रव्य पर दृष्टि करे। बस, ज्ञायकको भिन्न जाने, ज्ञायककी भिन्न परिणति (प्रगट करे)। क्षण-क्षणमें भिन्न (पडे), खाते-पीते, निद्रामें, स्वप्नमें भिन्न रहे। स्वानुभूति प्रगट होवे तब भावसंवर होता है। इसमें विशेष लीनता होवे तो विशेष निर्जरा होती है। सम्यग्दर्शन (होनेके बाद) विशेष लीनता होवे तब चारित्रदशा होती है। मार्ग तो एक ही है। दूसरा कोई मार्ग नहीं है। इसका दूसरा, इसका दूसरा