४६ (ऐसा नहीं है)। एक आत्माको पहचाने (उसमें) सब आ जाता है। और सबको पीछाने, आत्माको पीछाने नहीं तो कुछ जाना नहीं। एक आत्माको पीछाने उसमें सब आ जाता है। आत्माको जाना उसने सब जाना और आत्माको नहीं जाना तो ग्यारह अंगका ज्ञान हुआ तो भी कुछ नहीं हुआ।
मुमुक्षुः- आत्मा सुखी तो नहीं हुआ।
समाधानः- नहीं हुआ। आगमज्ञान (करे), परन्तु उसका अर्थ ऐसा नहीं है कि ज्यादा खूब जाने तो मुक्तिका मार्ग हो सकता है। अमुक प्रयोजनभूत जाने तो भी आत्माका स्वभाव प्रगट होता है। आगमज्ञान होता है। भगवानकी वाणी, भगवानने क्या कहा है, शास्त्रमें क्या आता है, आगमज्ञान आता है। विशेष जाने तो अच्छा है, थोडा जाने तो भी हो सकता है।
शिवभूति मुनि कुछ जानते नहीं थे। एक शब्दका ज्ञान भी भूल जाते थे। मारुष, मातुष। राग-द्वेष नहीं करनेका गुरुने कहा तो वह भी भूल गये। मासतुष हो गया। उसका भाव समझ लिया। औरत दाल और छीलका अलग करती थी। ऐसा मेरे गुरुने कहा कि आत्मा भिन्न है और यह विभाव भिन्न है। ऐसा भेदज्ञान करके अंतरमें ऊतर गये। मूल प्रयोजनभूत तत्त्वको जाने।