५० परमेष्ठी पर वैसी महिमा आये और जैसे भगवान हैं, वैसा स्वयंका आत्मा है। जैसे भगवानके द्रव्य-गुण-पर्याय हैं, वैसे अपने हैं। ऐसी रुचि हो, आत्माकी महिमा आये, भगवानकी महिमा आये, सब हो तो उसमें...
बिना विचार किये माला करे तो उसमें तो परिणाम कहाँ जायेंगे? भगवानकी उतनी भक्ति होनी चाहिये, पंच परमेष्ठीकी महिमा होनी चाहिये, तो परिणाम वहाँ रहे। आत्माकी रुचि नहीं हो, संसारकी रुचि कम नहीं हुयी हो, मात्र ओघे-ओघे बाहरसे अपने कुछ कर ले, क्रियामात्र करता हो और परिणाम तो कहीं के कहीं (भटकते हो)। अन्दर सब रस पडा हो। भगवान पर उतनी भक्ति नहीं हो, आत्माकी रुचि नहीं हो (कहाँसे हो)?
मुमुक्षुः- विचार करे, लेकिन ऐसा होता है कि यह गलत काम है, अपने सत्य करे। गलतमेंसे सत्य और शुभ-अशुभ ही होते रहते हैं। वहाँसे आगे नहीं बढा जाता। ऐसा होता है कि यह करेंगे तो कर्म बन्धेंगे, इससे कर्म छूटेंगे, परन्तु उससे आगे कुछ नहीं होता।
समाधानः- आत्माकी रुचि अन्दर होनी चाहिये। यह सब परद्रव्य है, शुभाशुभ भाव मेरा स्वरूप नहीं है। मैं भिन्न जाननेवाला ज्ञायक हूँ। ऐसे रुचि होनी चाहिये। रस बाहरका पडा है, अन्दर चैतन्यका रस नहीं आता, उसकी महिमा नहीं लगती।
मुमुक्षुः- सम्यकत्व सन्मुख मिथ्यादृष्टिकी दशा कैसी होती है?
समाधानः- उसका बाहरका लक्षण तो क्या होगा? परन्तु अंतरमें उसे एकदम आत्माकी लगनी लगी हो। एक चैतन्य.. चैतन्यके सिवा कुछ रुचता नहीं हो, उसे अन्दरसे बारंबार भेदज्ञानका अभ्यास चलता हो। पुदगल शरीर सो मैं नहीं, मैं आत्मा हूँ। यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। ऐसा ऊपर-ऊपरसे नहीं, परन्तु उसे गहराईसे (होता है)। यह चैतन्य स्वभाव मैं हूँ, यह मैं नहीं हूँ। ऐसा बारंबार, उसे बारंबार अंतरमेंसे ऐसी खटक, ऐसा अभ्यास उसे बारंबार-बारंबार चलता है। आत्माके सन्मुख बारंबार (होता हो)। आत्मा कैसे ग्रहण हो? उसकी दृष्टि बारंबार आत्माकी ओर जाती हो। कैसे आत्मा ग्रहण हो? मुझे आत्मा कैसे ग्रहण हो? मुझे आत्मा कैसे ग्रहण हो? उसका ज्ञान हो, उसमें लीन होऊँ। क्षण-क्षणमें मुझे आत्मा ही प्रगट हो, दूसरा कुछ नहीं चाहिये, मुझे एक आत्मा ही चाहिये। इतना अन्दरसे गहराईसे होता हो। मैं परपदार्थका कुछ नहीं कर सकता। मेरे स्वभावका कर्ता मैं (हूँ)। परपदार्थका जैसा होनेवाला हो वैसा होता है, मैं तो ज्ञायक ज्ञाता हूँ। लेकिन वैसी परिणति प्रगट करनेके लिये उसे अंतरमेंसे गहराईसे खटक लगती हो।
बारंबार उसका अभ्यास, गहराईसे अभ्यास चलता हो। आत्मा ग्रहण हुआ कि होगा,