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जो-जो विकल्प आवे उसमें निरसता लगे और आत्मामें ही रस लगे। आत्माका स्वभाव
कैसे ग्रहण हो? उसकी सन्मुखता हर वक्त आत्माकी ओर जाती हो। मुझे आत्मा कैसे
ग्रहण हो? मुझे आत्मा कैसे ग्रहण हो? बारंबार उसकी दृष्टि, उसका उपयोग बारंबार
आत्माको ग्रहण करनेकी ओर उसके विचार चलते हैं, उसकी दृष्टि बारंबार जाती है।
अंतर लक्षण तो वह है कि अंतरकी परिणति, उसका हृदय भीगा हुआ होता है। यह
सब रस टूट गये हो, अंतरमेंसे एकदम आत्माकी गहरी रुचि जागृत हुई हो।
मुमुक्षुः- स्वसंवेदनकी दशा बारंबार आती है, उन्हें किस कारणसे बारंबार आती है?
समाधानः- बारंबार आती है, उसकी परिणति विभावसे बिलकूल... उसे विकल्पमें कहीं रुचता नहीं है। कहीं खडे रहनेका स्थान नहीं है। उसकी परिणति सबसे छूट गयी है। सब संकल्प-विकल्प बाहरके (छूट गये हैं)। सब कषाय, प्रत्याख्या, अप्रत्याख्यान सब कषाय एकदम क्षय नहीं हुए हैं, परन्तु नहींके बराबर हो गये हैं। मात्र संज्वलन है, एकदम पतला संज्वलन। अशुभ तो है ही नहीं। वह तो सत्तामात्र होते हैं। थोडे- थोडे उदय हो तो, वह तो एकदम गौण (हो गये हैं)। उन्हें उपयोगमें नहीं आते हैं, उस प्रकारके हो गये हैं। शुभ परिणति है तो भी उस शुभ परिणतिमें भी बहुत रुकते नहीं है। बारंबार स्वानुभूतिकी ओर जाते हैं। उन्हें कहीं रुकनेका स्थान बाहरमें नहीं है।
उन्हें कहीं अच्छा नहीं लगता है। अन्दर चैतन्यकी स्थिरता, लीनता बहुत बढ गयी है। आहारका विकल्प आवे, विहारका विकल्प आवे, ऐसा किसीको विकल्प आता है। तो आहार करते-करते भी स्वरूपमें लीन हो जाते हैं। बाहरसे दिखनेमें नहीं आता। क्षण-क्षणमें लीन हो जाते हैं। उनकी विभावकी सब परिणति, सब कषायोंकि परिणति इतनी टूट गयी है कि बाहर उपयोग कहाँ खडा रहे? उपयोग खडा रहनेके लिये कोई स्थान ही नहीं है। बाहर उपयोग कहाँ रुके? शरीर परसे भी राग उठ गया है। शरीरको देखनेको, कुछ सुननेका, बाहरका कोई आश्चर्य रहा नहीं। शरीरमें धूप-सर्दी लगे तो मुझे क्या? कुछ नहीं होता, वह तो शरीर है। वह तो पुदगलको होता है। बाहरसे तो सब छूट गया, बाहरसे सब रस छूट गये। इतनी उग्रता हो गयी, कषाय बिलकूल (कम हो गये), भीतरमें स्थिरता इतनी बढ गयी। बाहरसे टूट गया, भीतरमें स्वरूपकी रमणता इतनी जम गयी कि बस, बारंबार स्वरूपमें ही जम गये। वह सब टूट गया और स्वरूपमें ऐसे जम गये, ऐसी लीनता हो गयी कि बारंबार (लीनता हो जाती है)। एक क्षण बाहर आवे तो क्षणमें अंतरमें जाते हैं, क्षणमें बाहर आवे तो क्षणमें अंतरमें जाते हैं। इतनी भीतरमें उग्र लीनता हो गयी है। बारंबार निर्विकल्प दशा होती