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मुमुक्षुः- पर्यायोंमें रमता हुआ प्रगट होता है। यह "रमता' शब्द तो मुझे इतना आनन्दित और उल्लासित कर दिया है कि वाह रे वाह! धन्य!
मुमुक्षुः- आपने अच्छा .. किया, बहिनश्रीको भी वह बोल बहुत अच्छा लगता है।
समाधानः- अपने स्वभावमें रमता हुआ प्रगट होता है। दृष्टि वस्तु पर है, परन्तु पर्यायमें वह अपने स्वभावमें रमता हुआ प्रगट होता है। अनन्त गुणसागर आत्मा है। वह कोई अलग ही है, अदभुत है, चमत्कारी है। विचार नहीं करना पडता अथवा उसे खोजना नहीं पडता। अपने स्वभावमेंसे ही वह रमता हुआ प्रगट होता है। उसे खोजना नहीं पडता, वह तो उसका स्वभाव ही है। उसका रमता, रम्य स्वभाव ही है। विकल्प छूटने पर वह सहज ही प्रगट हो जाता है। ऐसा ही उसका स्वभाव है। अनन्त गुण-पर्यायमें परिणमना-रमना वह उसका स्वभाव है। मूल वस्तु स्वयं अपने रूप रहती है, फिर भी अपने गुण-पर्यायमें रमता है। उसका स्वभाव ही है।
मुमुक्षुः- हमें आश्चर्य होता है कि भगवान भी खेल रहे हैं! खेल रहे हैं! बहिनश्रीको हम तो भगवानस्वरूप ही देखते हैं। ओहोहो..! उनको यह "रमता' शब्द कहाँसे याद आ गया? मुझे वही आश्चर्य लगा। रमता। भगवान आत्मा रमता हुआ प्रगट होता है।
समाधानः- याद कहाँ-से आये? वह तो सहज है।
मुमुक्षुः- उनको अन्दरकी दशाका ...
मुमुक्षुः- अदभुत! अनन्त गुणसागर आत्मा है। मैं कहूँ वैसा शब्द रखिये। मैं कहूँ वह। थोडा भी आगे-पीछे नहीं।
मुमुक्षुः- निज भगवान तो गुरुदेवने डाला है प्रवचनमें, निज भगवान आत्मा। बहिनश्रीने आत्मा लिखा है। अनन्त गुणसागर आत्मा। गुरुदेवने जो विश्लेषण किया है उसमें निज भगवान आत्मा (कहा है)। इसलिये मुझे अधिक आनन्द हुआ कि निज भगवान। दूसरा कोई आत्मा है, दूसरा कोई परमात्मा नहीं, निज भगवान आत्मा। अपने आनन्दादि चमत्कारिक स्वाभाविक...
समाधानः- चमत्कारिक है, स्वाभाविक है। सब शब्द ऐसे ही नहीं है। सब यथार्थ है।
मुमुक्षुः- सत्य बात है।
समाधानः- ऐसा कहा था कि उसमें जो शब्द है, वही शब्द उसमें लेना।
मुमुक्षुः- बराबर हिफाजतसे रखा है। जिसने-जिसने किया है, सबको अभिनन्दन और वन्दन करना चाहिये। वह शब्द ऐसे ही स्मरणमें नहीं रहते। उस भावमें प्रवेश हो...