५० अधिक बाहर नहीं जाता। उसकी सम्यग्दर्शनकी भूमिका है, उस अनुसार (राग आता है)। पंचम गुणस्थान वाले उनकी भूमिका अनुसार पुरुषार्थकी डोर (होती है), आगे बढते जाते हैं। छठ्ठे-सातवें गुणस्थान वाले अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वरूपमें लीन होते हैं, तो भी बाहर आते हैं तब उन्हे देव-गुरु-शास्त्रके शुभ परिणाम आते हैं, शास्त्र लिखते हैं। पद्मनंदी आचार्यको भक्तिके परिणाम आये तो भक्तिके श्लोक लिखे। अनेक प्रकारके शास्त्र लिखते हैं। अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें अन्दर जाते हैं।
मुमुक्षुः- परिणति परमें जाये तो खेद होता है।
समाधानः- खेद होता है। परन्तु जानते हैं कि मेरे पुरुषार्थकी मन्दता है। इसमें जुडना होता है, मुझे तो पूर्ण होना है, तो भी पुरुषार्थकी डोर हाथमेें है।
मुमुक्षुः- ज्ञाताधारा तो अविरतरूपसे चालू रहती है। फिर भी जानते हैं और पुरुषार्थकी डोर भी उनके हाथमें है।
समाधानः- ज्ञाताधारा चालू है तो भी अस्थिरताका ख्याल (है), पुरुषार्थकी डोर हाथमें है। मर्यादासे अधिक बाहर नहीं जाता।
मुमुक्षुः- ज्ञानीका हृदय आपने खोल दिया।
मुमुक्षुः- जानते हैं, फिर भी मर्यादामें..
समाधानः- वह तो उसे विकल्पपूर्वक है तो भी उसकी मर्यादा बाहर परिणति नहीं होती। ज्ञान .. वह तो भेदज्ञानकी धारा है, पुरुषार्थकी डोर (हाथमें है)। जिसे आत्माका प्रयोजन साधना है, उसकी अमुक प्रकारके मर्यादा बाहर नहीं जाते। उसे विभाव परिणति चाहिये ही नहीं। आत्मार्थीका जो प्रयोजन है, आत्माको साधना है, आत्माकी लगनी लगी है, विभाव परिणतिमें उसे एकत्व छूटा नहीं है, तो भी वह मर्यादा बाहर नहीं जाता। तो ही आत्माको साध सकता है, नहीं तो कहाँ-से साधे? तो ही उसे आत्मा मिले, नहीं तो कहाँ-से मिले?
मुमुक्षुः- आत्मार्थी मुमुक्षु भी अपनी मर्यादाके बाहर नहीं जाता। समाधानः- तभी उसकी पात्रता कही जाती है। नहीं तो आत्माका प्रयोजन है तो आत्मा कहाँ-से मिले? अमुक पात्रता तो होनी ही चाहिये।