समाधानः- .. अशुद्धता नहीं हुई है, मात्र पर्यायमें हुई है और पर्याय पलटती है। पर्यायमें जो राग होता है, वह स्वयंके पुरुषार्थसे होता है। और आत्मा वस्तु स्वभावसे शुद्ध है। उस पर दृष्टि करके पर्यायको शुद्ध कैसे करना, पुरुषार्थकी डोर कैसे प्रगट करनी, यह सब उसमें आता है। द्रव्य, गुण और पर्यायमें पूरा वस्तुका स्वरूप आ जाता है। द्रव्यके साथ अनंत गुण रहे हैं और पर्याय शुद्ध हो सकती है, उसमें यह सब आ जाता है। पूरा वस्तुका स्वरूप आ जाता है।
स्फटिक स्वभावसे निर्मल है। निमित्त हो तो निमित्तके कारण होती है, परन्तु होती है स्वयंसे, अपनी योग्यताके कारण होता है। निमित्त उसे कछु नहीं करता, परन्तु स्वयंकी ऐसी योग्यता है, इसलिये होता है। लेकिन स्फटिक स्वभावसे निर्मल है।
वैसे आत्मा द्रव्यसे शुद्ध है, पर्यायमें मलिनता है, यह सब उसमें आ जाता है। द्रव्य पर दृष्टि करनेसे ज्ञायककी धारा प्रगट हो और उसमें लीनता करनेसे पर्याय भी शुद्ध होकर शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। सब आ जाता है। और उसी पंथ पर स्वानुभूति, उसी पंथ पर मुनिदशा, उसी पंथ पर केवलज्ञान, सब उसमें आ जाता है। नौ तत्त्व, द्रव्य-गुण-पर्याय सब उसमें आ जाता है। बाहरसे नहीं होता है, बाह्य क्रियाओंसे नहीं होता, अंतर दृष्टि करनेसे होता है। बीचमें शुभभाव आता है, इसलिये बीचमें वह सब क्रिया आती है, लेकिन उससे कोई मुक्तिमार्ग नहीं है। पूरा स्वरूप आ जाता है। एक आत्माको पहचाने और स्वानुभूति प्रगट करे उसमें सब आ जाता है।
कोई मतमें द्रव्य एकान्तसे शुद्ध है, पर्याय नहीं है, कोई कहता है, क्षणिक है, कोई कहता है, नित्य है। वह सब पहलू स्वानुभूतिमें आ जाते हैं। अनेकान्तका पूरा स्वरूप आ जाता है। द्रव्यदृष्टि मुख्य है, लेकिन यह सब साथमें होता है। ज्ञायकको पहचाना, उसके साथ विरक्ति, महिमा सब साथमें होता है। प्रत्येक पहलू आ जाते हैं। उसके भावमें सब आ जाता है। फिर बाहरमें वह कितना कह सके वह अलग बात है, उसके भावमें सब आ जाता है।
मुमुक्षुः- अनुभूति होनेपर भी शास्त्रका रहस्य वाणीमें आना चाहिये, ऐसी वाणी नहीं भी हो।