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उत्तरः- कोई बहुत विस्तार नहीं कर सके ऐसा बनता है। अन्दर स्वयंको स्वानुभूतिकी दशा प्रगट हुई हो, आनन्द दशा प्रगट हुई हो। बाहरमें मूल प्रयोजनभूत कह सके, परन्तु उसके सब न्याय और युक्ति द्वारा कोई वादविवाद करे तो उसमें वह पहुँच नहीं पाये, ऐसा भी बन सकता है। उसकी वाणी सब काम करे, सब कह सके ऐसा नहीं भी हो। उसकी वाणी द्वारा सब विचार करके सबको युक्ति, न्यायमें पहुँच सके ऐसा उसका बाहरका उदय हो, ऐसा नहीं बन सकता। उसे ज्ञानमें जाने जरूर।
मुमुक्षुः- शास्त्रमें आता है कि, उसे शास्त्र पढनेकी अटक नहीं है।
समाधानः- मूल प्रयोजनभूत जान लिया, स्वानुभूति, आनन्द दशा प्रगट हुयी, फिर अधिक शास्त्र पढे हो तो ही वह आगे बढता है, ऐसा नहीं है। अभी लीनता कम है, चारित्रदशा नहीं हुई है तो उसमें बीचमें शुभभाव आये तो वह शास्त्रमें रुकता है, शास्त्रका अभ्यास करे, शास्त्रका विचार करे, श्रुतका विचार करे, द्रव्य-गुण-पर्यायका विचार करे, परन्तु इतना ज्ञान होना ही चाहिये, इतने शास्त्रोंका अभ्यास किया हो तो ही वह आगे बढे, तो ही उसकी शुद्धि हो और उसकी भूमिका बढती जाये, ऐसा शास्त्रके साथ सम्बन्ध नहीं है।
अंतरमें वह भिन्न होता जाये और लीनता बढती जाये, विरक्ति बढती जाये तो उसकी दशा आगे बढती जाये। उसे ज्ञानके साथ अथवा शास्त्रके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। सब जाने।
मुमुक्षुः- भावभासन सबका..
समाधानः- भावभासन पूरा है। वाणी या बोलना अथवा विस्तार करना ऐसा नहीं है, अन्दर सबका भावभासन है। कितनोंको नाम नहीं आते परन्तु भाव है कि मैं यह आत्मतत्त्व हूँ। यह विभाव है, ये दुःखरूप है, उससे मैं भिन्न हूँ। यह मेरा स्वरूप नहीं है, दुःखरूप मेरा स्वभाव नहीं है। उससे भिन्न होकर अन्दर शान्ति हेतु निज स्वभाव-घरमें जाता है कि शान्ति तो यहाँ है, इसमें नहीं है। इसप्रकार शान्ति हेतु अंतरमें जाता है। और मैं तो यह जाननेवाला हूँ। यह शरीर आदि सब मुझसे भिन्न है। ये विभाव, सब विकल्प आये वह सब आकूलतामय हैं। सब भाव उसे आते हैं।
(शिवभूति मुनिको याद) नहीं रहता था, ऐसा था। गुरुने कहा तो शब्द याद नहीं रहे और भाव याद रह गया कि मेरे गुरुने ऐसा कहा है कि तू भिन्न है और ये सब विभाव आदि भिन्न हैं। ये सब छिलका है और तू कस है। वह औरत दाल धोती थी। (उसे देखकर स्मरण हुआ कि), मेरे गुरुने ऐसा कहा था, जैसे छिलका अलग है, वैसे तू भिन्न है और ये सब तुझसे भिन्न है। ऐसा अन्दरसे आशय ग्रहण