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नहीं है और ... शांतिवाला... बीचमें आ गया है। कयी तीर्थक्षेत्र जंगलमें होते हैं,
वहाँ महामुश्किलसे पहुँच सकते हैं। यहाँ तो सीधा आ सकते हैं। यह सब बादमें
हुआ, गुरुदेवके प्रतापसे। एक हीराभाईकी दुकान थी। खुशाल अतिथी गृह आदि सब
बादमें हुआ। गुरुदेवके प्रतापसे कितना बढता गया। यहाँ तो जंगल लगता था। स्वाध्याय
मन्दिर कितना दूर लगता था। कहाँ जंगलमें, वहाँसे यहाँ आना। वहाँसे आये तो रातको
वहाँ मन्दिरमें बैठना हो तो बैठ नहीं सकते थे। आरती ऊतारकर तुरन्त जाना पडे।
बीचमें सब खाली जगह थी।
मुमुक्षुः- माताजी! गुरुदेवका विरह तो सचमुच आपके प्रतापसे हमें अभी दिखता नहीं, ऐसा लगता है।
समाधानः- गुरुदेव तो गुरुदेव ही थे। स्वाध्याय मन्दिरमें बिना माईकके कितनी दूर तक सुनाई देता था, ऐसी तो उनकी वाणी थी। प्राणभाईके मकानमें हम वहाँ रहते थे, वहाँ सुनाई देता था। है, नहीं आदि बीचवाले कुछ शब्द वहाँ तक सुनाई देते थे। इस रास्ते पर गाडियाँ चलनेवाली है, ऐसा किसी-किसीको स्वप्न आता था। यह रास्ता जंगल जैसा लगता है, वहाँ सब गाडियाँ चलनेवाली है, यहाँ ऐसा होनेवाला है, ऐसे स्वप्न आते थे।
मुमुक्षुः- स्वप्न सच हुआ।
समाधानः- सब मन्दिरोंके कारण एक तीर्थक्षेत्र जैसा हो गया है। एक जन बाहरसे शीखर देखकर, यहाँ यह है, यहाँ यह है, शीखर दिखायी देता है, यहाँ मन्दिर होना चाहिये। इस तरह कोई आया था। कोई कहता था, शिखर देखकर आते हैं।
मुमुक्षुः- ... तो कर्ताबुद्धि हो जाती है, नहीं करते हैं तो पर्यायमें इष्टपना कैसे मिटाना? पर्यायका इष्टपना करते हैं तो त्रिकाली दृष्टिकी बात जो कही, तो दृष्टि तो ... अनन्त भवमें कुछ किया नहीं, ऐसा लगता है।
समाधानः- दृष्टिको लक्ष्यमें रखनी। ज्ञायकको ग्रहण करना। उसके साथ-साथ सब होता है। एक करे और एक छूट जाये ऐसा नहीं होता। साधनामें ऐसा होता है। एक दृष्टिको लक्ष्यमें रखा तो फिर साधन छूट जाता है और साधनको लक्ष्यमें रखे तो दृष्टि छूट जाती है, ऐसा नहीं है। एकान्त ग्रहण करे तो छूट जाये, बाकी छूट जाये ऐसा नहीं है। इस प्रकार ज्ञायकको ग्रहण करके ज्ञानमें उसे होता है कि यह पर्याय है, पर्याय साधनामें होती है। साधनामें सब साधन अन्दर पुरुषार्थ आदि होता है। छूट नहीं जाता। उसकी सन्धि है।
एक ज्ञायकको ग्रहण किया और दृष्टि वहाँ स्थापित कर दी तो सब छूट जाये