Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-३)

६८ ऐसा नहीं होता। एक ओर लक्ष्य करे और एक ओर ही स्वयं एकान्त कर ले तो छूट जाये। नहीं तो छूटता नहीं। उसकी सन्धि हो सकती है। एकको मुख्य रखे और दूसरा गौण रखे तो हो सकता है। ज्ञायकको मुख्यरूपसे ग्रहण करे और पर्यायका लक्ष्य रखकर पुरुषार्थ करे तो होता है। उसका लक्ष्य रखनेका है कि मैं तो अनादिअनन्त शुद्ध हूँ। शुद्धतामें कोई अशुद्धताका अन्दर प्रवेश नहीं हुआ है। तो भी पर्यायमें अशुद्धता है, द्रव्यमें नहीं है। पर्यायमें अशुद्धता है, इसलिये मैं अपने स्वरूपकी ओर स्वरूपकी परिणति प्रगट करनेसे अशुद्धता टलती है।

इसलिये एक ग्रहण करे तो एक छूट जाये ऐसा नहीं है। एक द्रव्य है और एक पर्याय है। दो द्रव्य हो तो छूट जाये। (यहाँ तो) एक द्रव्य है, एक पर्याय है। एकको गौण करना है, एक मुख्य है। कभी उपयोगमें विचारमें आये तो पर्यायके विचार आये, इस तरह पर्याय ज्ञानमें मुख्य होती है, परन्तु दृष्टि तो मुख्य है द्रव्य पर और पर्याय गौण है।

मुमुक्षुः- पुरुषार्थ होता हो उसे जाने या पर्यायमें पुरुषार्थ करे?

समाधानः- मात्र जाने उतना ही नहीं, परन्तु पुरुषार्थ करता है। मात्र जाने, जाने तो पुरुषार्थ होता है। ऐसा जाने कि मैं ज्ञाता हूँ, ज्ञाताकी उग्रता करे तो ज्ञानमें पुरुषार्थ आ गया। परन्तु मात्र जाने, जाननेके लिये जाने तो वैसे ज्ञानमें पुरुषार्थ नहीं होता। ज्ञायककी उग्रतामें पुरुषार्थ आ गया। परन्तु ज्ञाता अर्थात जाना कि पर्याय है। ऐसा जाना इसलिये पुरुषार्थ आ गया, ऐसा नहीं है। ज्ञाताधाराकी तीक्ष्णता करे तो उसमें पुरुषार्थ आ जाता है। मैं ज्ञायक हूँ और ज्ञाताधाराकी उग्रता करे और उसमें लीनता करे तो उसमें पुरुषार्थ आ जाता है।

मैं द्रव्य ज्ञायक हूँ। उस ज्ञायकको ज्ञायकरूप रहनेके लिये, ज्ञायककी परिणतिको दृढ करनेके लिये, उसकी ज्ञाताधाराकी उग्रताके लिये पुरुषार्थ करता है। बाहर जा रहा उपयोग और विभावकी जो परिणति है, उस विभाव परिणतिसे स्वयं भिन्न होकर अंतरमें स्वरूपकी ओर लीनता करनेका प्रयत्न करता है। जानना अर्थात मात्र जान लेना, ऐसा नहीं। परन्तु पुरुषार्थपूर्वक जानना है। ज्ञाताधाराकी उग्रता करता है।

मुमुक्षुः- द्रव्य और पर्याय, दोनोंके बीचका खेल ही समझमें नहीं आता। ऐसा करने जाते हैं तो निश्चयाभासी हो जाते हैं और वहाँ जाते हैं तो व्यवहाराभासी हो जाते हैं।

समाधानः- वह सब विकल्पात्मक है, इसलिये ऐसा होता है। सहज हो तो नहीं होता। विकल्पात्मक है। द्रव्य पर दृष्टि रखूँ, ऐसा विकल्पसे होता है। वह सब विकल्पसे करने जाता है, इसलिये एक विकल्प छूट जाता है और एक विकल्प होता