Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 82.

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 503 of 1906

 

अमृत वाणी (भाग-३)

७०

ट्रेक-८२ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- पहले द्रव्यदृष्टि करनी या पहले व्यवहार करना?

समाधानः- यथार्थ द्रव्यदृष्टि हो वहाँ यथार्थ व्यवहार आ जाता है। पहले व्यवहार तो अनादिका है। द्रव्यदृष्टिके साथ व्यवहार साथमें रहा है। द्रव्यदृष्टि यथार्थ किसे कहते हैं? कि उसके साथ व्यवहार होता है। यदि सब छूट जाये तो वह दृष्टि ही सम्यक नहीं है। सम्यग्दृष्टि हो, यथार्थ दृष्टि हो तो उसके साथ ज्ञान होता है और यथार्थ स्वरूप रमणता होती है। ऐसी निश्चय-व्यवहारकी सन्धि है। दृष्टि ज्ञायक पर गयी इसलिये पूर्ण मुक्ति अर्थात पूर्ण वेदन नहीं हो जाता। अभी न्यूनता है, तब तक पुरुषार्थ है।

मुमुक्षुकी दशामें वह नक्की करे कि मैं स्वभावसे निर्मल है। उसके भेदज्ञानका प्रयास करे कि मैं भिन्न हूँ। यह सब एकत्वबुद्धि तोडनेका प्रयत्न करे। प्रयत्न और दृष्टि आदि सब साथमें रहते हैं। उसकी भावनामें भी वैसा होना चाहिये। ... नाश नहीं हुआ है। स्वभावको स्वयं ग्रहण करे। जैसा स्वभाव है वैसा ही ग्रहण करे। फिर पर्यायमें न्यूनता है, अशुद्धता है, सबको टालकर शुद्धताका प्रयास करे।

मुमुक्षुः- .. दृष्टिका बल बढ जाता होगा?

समाधानः- पर्याय है ही नहीं, ऐसा करनेसे दृष्टिका बल बढ जाता है, ऐसा नहीं है। जैसा है वैसा यथार्थ जाने तो दृष्टिका बल बढता है। पर्याय है। है ही नहीं, ऐसा मानना ऐसा दृष्टिका विषय नहीं है। उसकी दृष्टिके विषयमें नहीं है। परन्तु पर्याय वस्तु ही नहीं है और द्रव्यको पर्याय है ही नहीं, यह यथार्थ ज्ञान नहीं है। दृष्टिके विषयमें नहीं है। दृष्टिके विषयमें पर्याय आती नहीं। उसका ध्येय एक द्रव्य पर है। इसलिये पर्याय उसकी दृष्टिमें नहीं है, इसलिये पर्याय है ही नहीं, ऐसा नहीं है।

मुमुक्षुः- ... रागको जानना और उस प्रकारके स्वयंका स्वभावकी ओरके पुरुषार्थको जानना, तो इन तीनोंको जाननेमें कोई अंतर है?

समाधानः- जानना वह तो जानना ही है। रागको जाने या परको जाने या पुरुषार्थको जाने, परन्तु उसका स्वरूप जाने कि राग वह विभावपर्याय है। शरीरादि परद्रव्य है और यह पुरुषार्थ है, वह स्वरूपकी ओरका पुरुषार्थ है। उसका स्वरूप जैसा है वैसा जाना। जानना तो जानना है, परन्तु उसका स्वरूप कैसा है? ज्ञेयोंका स्वभाव भिन्न-भिन्न है,