ऐसा जाने। जानना ही है।
मुमुक्षुः- ज्ञेयोंका स्वभाव भिन्न-भिन्न है, तो जैसे परपदार्थके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, वैसे....?
समाधानः- वह तो जैसी वस्तु है वैसा जानता है। परद्रव्य मेरा स्वरूप नहीं है, मैं परद्रव्यसे भिन्न हूँ, यह विभावपर्याय मेरा स्वभाव नहीं है। और यह मैं साधना करता हूँ, यह जो पर्याय है वह अंश है। पूर्ण अंशी जो पूरा है, वह पूर्ण है वह स्वरूप भिन्न है और यह अंश है। जैसे हैं वैसे सब प्रकार जानता है। स्वयं यथार्थ जानता है। यह सब जाननेके प्रकार हैं। ज्ञान तो सब जानता है। यथार्थ जाने और फिर पुरुषार्थ करने योग्य हो उस ओरका पुरुषार्थ है। हेयको हेय जाने, उपादेयको उपादेय जानता है। जैसा है वैसा जानता है। (द्रव्य) पर दृष्टि रखता है। दृष्टिका विषय ग्रहण करके सब कायामें जुडता है।
एक स्फटिक वस्तुको ग्रहण किया कि यह स्फटिक है। सफेद है और चमकवाला है, वह सब उसके भेद हुए। परन्तु एक ग्रहण किया कि मैं चैतन्य हूँ। अस्तित्वको ग्रहण करके फिर सब जानता है। अस्तित्वको अस्तित्व जाने, पर्यायको पर्याय जाने, मलिनताको मलिनता जाने, ऐसे जानता है। उसे भिन्न करता है कि यह मैं नहीं हूँ। यह परद्रव्य है, यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। पुरुषार्थसे ज्ञायककी धाराको उग्र करता है। जानकर विवेक करता है। उस प्रकार उसका पुरुषार्थ चलता है।
मुमुक्षुः- अपने अस्तित्वकी पक्कड रखकर जो भाव जिस स्वरूप है, उस रूप उसे वह जानता है।
समाधानः- बराबर जानता है। उस प्रकार उसे जो लाभरूप हो उस कार्यमें जुडता है। जो अपना नहीं है, उससे भिन्न पडता है।
मुमुक्षुः- यानी जो लाभरूप जाननेमें आता है उस ओर सहज ही उसका जोर चलता है और जो हानिकारक है उस ओरसे...
समाधानः- वहाँसे छूटनेका प्रयत्न करता है। घर सँभालकर सब कायामें जुडता है। चैतन्यके घर पर दृष्टि रखे तो दूसरा छूट जाये, और वह करे तो यह छूट जाये, ऐसा नहीं होता। उससे भिन्न पडता है। पुरुषार्थ करके निर्मलता (प्रगट करता है)। उसे निर्मलताका वेदन है। मलिनताका मलिनतारूप है।
मुमुक्षुः- आप कहते हो कि सुलभ है, परन्तु हमें तो उससे अधिक दुर्लभ बाकी कुछ नहीं दिखता।
समाधानः- अंतरमें ही करना है, परन्तु वह कठिन हो गया है। स्वयं ज्ञायकको पहचाने तो सरल ही है। ज्ञायकको भिन्न जान। शरीरसे भिन्न, विभावसे अपना स्वभाव