७२ भिन्न है। सब भिन्न है। आसान ही है, परन्तु करे तो। न करे तो दुर्लभ है। ऐसे ही अनन्त काल चला गया। अनन्त कालसे प्राप्त नहीं हुआ है, इसलिये दुर्लभ है, परन्तु करे तो आसान है।
.. कितने साल बीत गये, आगे बढना है। बहुत साल बीत गये इसलिये अब क्या आये? वह तो कहनेकी बात है। उसमें ऐसा नहीं है, यह कोई लौकिक बात नहीं है, यह तो आत्माकी बात है। प्रतिज्ञा ली वह तो अच्छी बात है। परन्तु मेरी तबियत ऐसी है न, इसलिये। .. उसका लाभ मिला और प्रतिज्ञाका प्रसंग बना। अन्दर आत्माका हेतु है... जो जिज्ञासु है उसे निष्फल नहीं जानेवाला है, फलेगा। निज आत्माके हेतुसे प्रतिज्ञा ली है।
मुमुक्षुः- ऐसा होता है, बाहरमें अकेले शुभभावमें..
समाधानः- ... पुरुषार्थ होता हो तो करना, अच्छी बात है। नहीं तो गहरे संस्कार डले वह लाभका कारण है। हो सके तो करना, नहीं तो श्रद्धा तो जरूर करना, ऐसा शास्त्रमें आता है। हो सके तो ध्यानमय प्रतिक्रमण करना। न हो सके तो कर्तव्य है-श्रद्धा ही कर्तव्य है। श्रद्धामें फेरफार (नहीं होना चाहिये)। श्रद्धा कर्तव्य है। तो आगे बढा जायेगा। श्रद्धाका बल बराबर रखना चाहिये।
ज्ञायकके मार्गके सिवा दूसरा कोई मार्ग नहीं है। बाहरके कोई क्रियाकाण्डमें मार्ग नहीं है, यह तो अंतरका मार्ग है। ज्ञायककी श्रद्धा करके भेदज्ञान करना, द्रव्य पर दृष्टि करना, शरीरसे आत्मा भिन्न, विकल्पसे अपना स्वभाव भिन्न, सबसे भिन्न एक ज्ञायकको भिन्न करना, दूसरा कोई मार्ग नहीं है। सर्वस्व सब विभावसे भिन्न स्वयं है। विभाव अपना स्वभाव नहीं है। उसका भेदज्ञान, उसकी निरंतर धारा, वह सब करने जैसा है। उसकी श्रद्धा बराबर करना, बन सके तो। ध्यानमय ज्ञायककी परिणति करना, न हो सके तो श्रद्धा करना।
देव-गुरुने जो बताया, देव-गुरुकी श्रद्धा और आत्माकी श्रद्धा-दो बताया, वह करना है। देव-गुरुका सान्निध्य महाभाग्यकी बात है। उनकी महिमा करनी, बाकी ज्ञायककी महिमा करनी। ज्ञायक महिमावंत है, वही पहचानने योग्य है। उसके गहरे संस्कार डालना। बन सके तो परिणति प्रगट हो तो अच्छी बात है, नहीं तो श्रद्धा कर्तव्य है।
... छः, चौदह कितने-कितने... आत्माका कल्याण करनेके लिये सब तैयार हो गये, गुरुदेवके सान्निध्यमें। सबके प्रसंग बार-बार आये वह तो एक आनन्दकी बात है। मेरी तबियत ऐसी है। इतने साल सबको आनन्दसे... कितने वषा तक वाणी सुनी। कितना आनन्द... प्रतिज्ञा ली थी, तब सब कितने छोटे-छोटे थे। इस भवमें सब तैयारी कर लेनी। पुरुषार्थ हो सके तो करना, नहीं तो सब तैयारी कर लेनी। देशनालब्धि,