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.. अंतरमें आया, जिसे गुण प्रगट हुए, मुक्तिका मार्ग जिसे प्रगट हुआ, अंतरमें जिसे दर्शन, ज्ञान, चारित्र प्रगट हुआ, ऐसे गुरुकी भक्ति शिष्योंको आये बिना रहती ही नहीं। आचार्य भी शास्त्र लिखते हैं, तब सिद्ध भगवानको, अरिहंत भगवानको नमस्कार करके ही लिखते हैं। बडोंको आगे रखकर ही शास्त्र लिखते हैं। आचार्यको भी ऐसा होता है। मात्र लिखनेके खातिर नहीं, भावसे लिखते हैं।
कुन्दकुन्दाचार्य भी कहते हैं कि मुझे जो आत्म-वैभव प्राप्त हुआ, वह मेरे गुरुसे प्राप्त हुआ है। देवाधिदेव अरिहंतदेव भगवानकी परंपरा और मेरे गुरुने जो मुझे आत्माका वैभव दर्शाया, उससे मुझे प्रगट हुआ है। ऐसा कहते हैं। गुरुकी भक्ति तो आये बिना नहीं रहती। जिसे आत्माकी साधना करनी है, उसे गुरुकी भक्ति तो साथमें होती ही है। गुरुने जो ध्येय बताया कि तू ज्ञायकको ग्रहण कर, उस ज्ञायककमें-उस शुद्धात्मामें कोई विकल्प नहीं है। शुद्धात्मा सब विकल्पसे भिन्न है। शुभाशुभ भावोंसे उसका स्वभाव भिन्न है। ऐसा गुरु दर्शाते हैं। ग्रहण उसे करना है। गुरुने जो स्वभाव दर्शाया, उस स्वभावको पहचानकर अंतरमें ग्रहण करना स्वयंको है। लेकिन बीचमें गुरुकी भक्ति आये बिना नहीं रहती। पंच परमेष्ठीकी भक्ति, गुरुकी भक्ति, जिन्होंने मार्ग बताया, उनकी भक्ति उसे साथ-साथ होती ही है।
जो आत्माकी साधना कर रहे हैं, उसे भी गुरुकी भक्ति होती है। तो जिज्ञासुको तो साथमें होती ही है। जिसे दर्शन, ज्ञान, चारित्र प्रगट हुआ, ऐसे आचार्य भी गुरुकी भक्ति (करके) गुरुको आगे रखते हैं। पद्मनंदी आचार्य भी जब शास्त्र लिखते हैं, तब जिनेन्द्र देवकी कैसी भक्ति करते हैं! आपके दर्शनसे, भगवान! मेरा सब टल जाता है। भगवान! बादलके जो यह टूकडे हुए, जब मेरु पर्वत पर अभिषेक हुआ, उस वक्त इन्द्रने भूजाओंको फैलाया तब बादलके टूकडे हो गये। कैसी भक्ति की है, आचार्यने भी! जो आत्माकी आराधना करते हैं, छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं, निर्विकल्प तत्त्वमें बारंबार निर्विकल्पस्वरूप परिणमित हो जाते हैं। बाहर आये तब शास्त्र लिखते हैं। तत्त्वके, भक्ति आदिके लिखते हैं। आचायाको भी (भक्ति) होती है।
सम्यग्दृष्टि जो गृहस्थाश्रममें होते हैं, उन्हें भी गुरुकी भक्ति होती है। तो जिज्ञासुको गुरुकी भक्ति (हो, उसमें कहाँ प्रश्न है?) स्वयं कुछ जानता नहीं और जो मार्ग दर्शाते हैं, उनकी भक्ति आये बिना नहीं रहती। तत्त्वविचार, देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति आदि सब बीचमें आता है। अंतरमें वैराग्य, विरक्ति, शुभाशुभ भावोंसे-विभावसे विरक्ति और गुरुकी भक्ति, स्वभावकी महिमा आदि जिज्ञासुकी भूमिकामें होता है।
... दूसरोंको कर नहीं सकता, गुरु कहे, इसलिये वह कर नहीं सकता है, ...