ट्रेक-
८२
७५
परन्तु उसे भावनामें शुभभावमें स्वयंको आगे बढना है, उसमें शुभभाव आये बिना नहीं
रहते। गुरुके आगे एकदम विनयवान (हो जाता है) और भक्ति आये बिना नहीं रहती।
रहते। गुरुके आगे एकदम विनयवान (हो जाता है) और भक्ति आये बिना नहीं रहती।
द्रव्यदृष्टिसे स्वयं प्रभु जैसा है, पर्यायमें स्वयं पामर है। प्रभु, भगवान, गुरुदेव! मैं तो पामर हूँ। ऐसी भावना उसे होती है। उसमें भी आता है, स्वयं द्रव्यदृष्टिसे प्रभु जैसा है, परन्तु पर्यायमें पामरता है। सब मेरेमें है, ऐसी दृष्टि हो तब तक आगे नहीं बढ सकता। गुरुने ही सब समझाया है और गुरु ही सर्वस्व है। ऐसा उसके हृदयमें हो तो वह आगे बढ सकता है।
आगे बढना है, द्रव्य पर दृष्टि करनी है, भेदज्ञान करना है, दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट करना है, बहुत करनेका बाकी है। स्वभावमें सब है, परन्तु साधनामें सब प्रगट करना है। इसलिये शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति आये बिना नहीं रहती।
प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!