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बाहर राग है, बाहर एकत्वबुद्धि है, उसके साथ ज्ञान जुडा है। बाहरका रस तोड दे और अंतर आनन्द है, उसकी ओर जा। तेरे ज्ञानका उपयोग बाहर है, उसे अंतरमें ला। शुभाशुभ भावको भिन्न कर और तेरे आत्माके अन्दर ला, ऐसा कहते हैं।
मुमुक्षुः- कहीं अच्छा न लगे तो उपयोग अन्दरमें जाये?
समाधानः- हाँ, उपयोग अन्दरमें जाये। अन्दर जाता है वह ज्ञानका उपयोग जाता है, परन्तु बाहर है वह शुभाशुभ मिश्रित है। उपयोग बाहर है (वह)।
मुमुक्षुः- ... अन्दरमें ही जाये?
समाधानः- सचमुचमें कहीं रुचे नहीं, बराबर यथार्थरूपसे अच्छा नहीं लगता हो तो उपयोगको कहीं रहनेका स्थान नहीं रहता। उपयोग कहाँ टिकता है? जहाँ राग हो वहाँ टिके। राग छूट गया, सचमुचमें उसे राग होता ही नहीं और बाहर कहीं रुचता ही नहीं, सचमुचमें नहीं रुचता, फिर उपयोग-ज्ञानका उपयोग कहाँ टिकेगा? पहले तो शुभभाव और अशुभभावमें टिकता था। बाह्य ज्ञेयोंके साथ राग और द्वेष आदि होता था। अब, कहीं रुचता नहीं है तो ज्ञानका उपयोग कहाँ जायेगा? स्वरूपकी ओर जायेगा।
वास्तवमें उसे यदि रस टूट गया हो, कहीं खडे रहना रुचता न हो, अब कहाँ जाना? अब किसके आश्रयमें जाना? यह आश्रय तो ठीक नहीं लगता है, शुभाशुभ भावका आश्रय बराबर नहीं है, वहाँ खडे रहना रुचता नहीं। कहाँ जाना? तो वह स्वयं स्वयंके चैतन्यका आश्रय खोज लेगा और अंतरमें गये बिना रहेगा नहीं। अंतरका आश्रय खोज लेना, यदि बाहरमें टिक नहीं पाया तो। स्वभावका आश्रय खोज लेगा।
मुमुक्षुः- समयसारमें दृष्टान्त आता है न, समुद्रमें जहाज पर पक्षी बैठा है।
समाधानः- समुद्रमें जहाज पर बैठा पक्षी।
मुमुक्षुः- पक्षी ऊड-ऊडकर कहाँ जायेगा? वहीं वापस आ जायेगा।
समाधानः- वहीं आ जायेगा, आश्रय जहाजका लेगा। वह दृष्टान्त आता है।
मुमुक्षुः- माताजी! ज्ञानी चौबीसों घण्टे क्या करते रहते हैं?
समाधानः- चौबीसों घण्टे उसे ज्ञायकका आश्रय है, ज्ञायककी परिणति है। ज्ञायककी परिणतिमें रहते हैं और उपयोग भले बाहर जाता हो। जैसी उसकी दशा हो, उसके अनुसार उपयोग बाहर शुभमेें उसकी भूमिका अनुसार जाता है। गृहस्थाश्रममें सम्यग्दृष्टि हो तो उसके गृहस्थाश्रमके कार्य और शुभभावमें उपयोग जाता हो, परन्तु उसकी परिणति, उसकी परिणति निरंतर चैतन्यके आश्रयमें ही है। उसने आश्रय चैतन्यका ही लिया है। दूसरा बाहरका आश्रय उसे छूट गया है। भले ही सब आता हो, परन्तु आश्रय-चैतन्यघर