८६ होता है। परन्तु अंतरमें सच्चा पुरुषार्थ तो उसे भेदज्ञानकी धाराका और आत्मामें लीनताका (होता है)। जो शुभभाव भाव होते हैं, उससे भिन्न ही रहता है। और ज्ञायककी धारा वह पुरुषार्थ करके भिन्न ही रखता है और उसकी परिणति सहज ऐसी ही रहती है। फिर भी अभी पूर्ण नहीं हुआ है, पूर्णता नहीं हुयी है, अंतरमें लीन नहीं रह सकता है, स्वानुभूति (होती है परन्तु) अंतर्मुहूर्तमें तो बाहर आता है। उतनी भूमिका नहीं है। चौथे, पाँचवे गुणस्थानमें उतनी भूमिका नहीं है। छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें हो तो भी वह अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें बाहर आते हैं। इसलिये उपयोग बाहर आता है। वीतराग दशा नहीं हुयी है। इसलिये उसे अशुभभावसे बचनेको शुभका पुरुषार्थ होता है। होता है, परन्तु वह हेयबुद्धिसे होता है। सर्वस्व मानकर नहीं होता है कि यह पुरुषार्थ सर्वस्व है और इससे मुझे लाभ होनेवाला है और मेरे आत्मामें कुछ प्रगट होनेवाला है। ऐसी मान्यता नहीं है।
अशुभभावसे बचनेके लिये शुभका पुरुषार्थ, शुभमें खडा रहता है। परन्तु पुरुषार्थ अन्दर वास्तवमें तो अंतरमें शुद्धि बढानेका होता है। मेरी अंतरमें लीनता कैसे हो? यह सब कषाय, जो विभावभाव है, उसकी मन्दता होकर मैं अंतरमें लीन हो जाऊँ अथवा वीतराग हो जाऊँ ओर यदि यह सब छूट जाता हो तो एक क्षण भी शुभाशुभ भाव आदि कुछ नहीं चाहिये। अन्दर मान्यता तो ऐसी है कि इस क्षण यदि छूट जाता हो तो यह शुभादि कुछ नहीं चाहिये। परन्तु अन्दर स्थिर नहीं हो सकता है, इसलिये बाहर शुभभावमें खडा रहता है। अशुभभावसे बचनेके लिये शुभमें खडा रहता है। अंतरमें पुरुषार्थ उग्र नहीं होता है, इसलिये बाहर शुभमें खडा रहता है।
अशुभ तो सर्व प्रकारसे हेय है, शुभ भी स्वभावदृष्टिसे हेय है। स्वभावदृष्टिसे वह भी हेय है। परन्तु कोई अपेक्षासे वह मन्द कषाय है, इसलिये खडा रहता है। देव- गुरु-शास्त्रके आलम्बनयुक्त होता है, इसलिये वह शुभभावोंमें-मन्द कषायमें खडा रहता है।
मुमुक्षुः- लाभ नहीं मानते हैं फिर भी...
समाधानः- लाभ नहीं मानते हैं।
मुमुक्षुः- उसके प्रयत्नमें होते हैं।
समाधानः- हाँ, प्रयत्न होता है। खडा रहता है। मन्द कषाय है, इसलिये खडा रहता है। अंतरमें ज्यादा समय स्थिर नहीं सकता है, इसलिये बाहर आता है। चौथे गुणस्थानमें भी होता है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, देव-गुरु-शास्त्रके कायामें होता है। छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें भी होता है। मुनिओंको पंच महाव्रतके परिणाम होते हैं। और शास्त्र लिखते हैं, उपदेश देते हैं। उस प्रकारकी शुभभावकी प्रवृत्ति होती है। तो भी