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मुमुक्षुः- मुमुक्षुकी भूमिकामें कैसा शुभभाव होता है?
समाधानः- मुमुक्षुको एकत्वबुद्धि है, भिन्न नहीं हुआ है। परन्तु वह मानता है, वह मुमुक्षु ऐसा मानता है कि यह शुभाशुभ भाव मेरा स्वरूप नहीं है। आत्मा भिन्न है, आत्मा निर्विकल्प स्वभाव ज्ञायक जाननेवाला है। परन्तु उसकी परिणति प्रगट नहीं हुयी है, इसलिये वह शुभभावमें खडा है। उसे तो एकत्वबुद्धि होती है। परन्तु उसने विचार करके जो निर्णय किया है कि, यह भाव मेरा स्वरूप नहीं है। वह निर्णय साथमें रहकर उससे मुझे धर्म होता है या उसे सर्वस्व मानता है, ऐसा मुमुक्षु मानता नहीं। परन्तु अंतरकी श्रद्धा, वह अलग बात है। लेकिन उसे वह सर्वस्व नहीं मानता। वह भी अशुभसे बचनेको शुभभावमें खडा रहता है। परन्तु उसे आत्मा भिन्न नहीं रहता है। एकत्व हो जाता है। उसकी मान्यता ऐसी रखे कि, यह सर्वस्व नहीं है, यह तो हेय है। मेरा स्वभाव नहीं है। ऐसा विचारमें भी वह रह सकता है।
आत्मा ग्रहण नहीं हुआ है, अशुभभावमें जाता है, कहाँ खडा रहेगा? शुभभावमें खडा है। रुचि आत्माकी रखे कि आत्माका ही करने जैसा है। यह मेरा स्वभाव नहीं है। सुख तो आत्मामें है, निर्विकल्प स्वरूपमें ही सुख है। विकल्पात्मक परिणतिमें सुख नहीं है। निर्विकल्प स्वरूप जो आत्मा, उसमें ही सुख है। ऐसी रुचि रखे। ऐसी रुचि रखे और ... एकत्वबुद्धि होती है। विचारमें हो, निर्णयमें हो तो भी उसकी परिणति भिन्न नहीं हुयी है।
लेकिन जो कुछ नहीं समझते हैं, एकत्वबुद्धिमें सर्वस्व मानते हैं, उसकी तो मान्यता ही अलग है। विचारपूर्वक भी उसकी मान्यता बराबर नहीं है। इसने विचारसे इतना निर्णय किया है तो उसे आगे बढनेका अवकाश है। लगनी लगाये तो आगे बढनेका अवकाश है।