मुमुक्षुः- पर्यायके षटकारक स्वतंत्र है?
समाधानः- द्रव्यदृष्टिसे स्वतंत्र है। पर्याय अपेक्षासे पर्यायके स्वतंत्र और द्रव्य अपेक्षासे द्रव्यके स्वतंत्र। बाकी पर्याय द्रव्यके आश्रयसे होती है। द्रव्यके आश्रय बिना पर्याय नहीं होती है। अपेक्षासे उसे गौण करके स्वतंत्र कहनेमें आता है। द्रव्यकी अपेक्षासे उसे स्वतंत्र कहकर, पर्यायको गौण करके उसे स्वतंत्र कहते हैं। वह द्रव्यकी पर्याय है। द्रव्यको छोडकर पर्याय कहीं अलग नहीं लटकती है। पर्याय भिन्न, एकदम सर्व प्रकारसे भिन्न हो तो वह दूसरा एक द्रव्य हो जाय।
मुमुक्षुः- ..नहीं जाने हुएका श्रद्धान खरगोशके सींग समान है। मुनिको आगमज्ञान हो और ...
समाधानः- क्या? जाना है, फिर भी श्रद्धान नहीं होता? जाना हुआ वह ऐसा जाना हुआ कहनेमें आता है। अंतरसे जाना हो तो उसे श्रद्धा हुये बिना नहीं रहती। जाना हुआ यानी.. क्या कहा? आगमज्ञान..?
मुमुक्षुः- आगमज्ञान हो और तत्त्वार्थ श्रद्धान न हो।
समाधानः- आगमज्ञान तो किया, लेकिन यदि अंतरमें श्रद्धा नहीं की। अर्थात उसने श्रद्धा तो ऐसे की है, परन्तु अंतरसे नहीं की है। इसलिये वह जाना है, वह ऐसा जाना है कि अंतरकी परिणतिको मिलाकर नहीं जाना है। क्षयोपशमसे जाना है। परन्तु अंतरकी परिणतिको मिलाकर, अंतरकी परिणतिके साथ जो जानना चाहिये, वैसे नहीं जाना है, इसलिये उसके साथ तत्त्वश्रद्धान नहीं है। परन्तु जिसने सच्चा जाना हो, उसके साथ तत्त्वार्थ श्रद्धान हुए बिना नहीं रहता। और तत्त्वार्थ श्रद्धान सच्चा हो, उसके साथ सच्चा ज्ञान होता है।
... दुःख यानी बहुत आकुलता करे, ऐसा नहीं है। अन्दरसे स्वयंकी परिणति ही ऐसी होती है कि कहीं टिकती नहीं। अंतरमें कुछ दूसरा चाहिये। कहीं शान्ति नहीं लगती। कृत्रिमतासे दुःख है, दुःख है, उसे दुःख नहीं कहते। एकत्वबुद्धि हो रही है, उसे कहाँसे दिखे? रस लगा है, अनुकूलतामें बह जाता है। जो आत्माको पहचानता है, उसे अनुकूलतामें भी दुःख लगता है। अनुकूलता भी आत्माको सुख देनेवाली नहीं