९० है। वह भी आकूलतारूप है। वह अपना स्वभाव नहीं है। वह उपाधि है, विभावकी उपाधि है, अनुकूलता है वह। देवलोकका सुख भी उपाधि है। वह आत्माको सुखरूप नहीं है।
सम्यग्दृष्टि देवलोकमें हो तो उसे अंतर आत्मामें सुख लगता है, बाहर कहीं नहीं लगता। अनुकूलताके गंज हो तो भी सम्यग्दृष्टिको कहीं सुख नहीं लगता। अनुकूलतामें खींचाता नहीं। और प्रतिकूलतामें एकदम उसे खेद हो जाये ऐसा भी नहीं है। अनुकूलतामें खींचाता नहीं और प्रतिकूलतामें शान्ति रखता है। प्रतिकूलतामें आकुलता नहीं करते, उसमें भी शान्ति रखता है। अनुकूलतामें बह नहीं जाते।
अज्ञानदशामें उसने भ्रान्तिके कारण इसमें सुख है, ऐसा माना है। बह जाता है। किसीको वैराग्य आया हो तो ऐसा लगे कि यह अनुकूलता आत्माका स्वरूप नहीं है। परन्तु अंतरसे जो लगना चाहिये, वह अलग बात है। .. भी आकुलता है, अनुकूलता भी उपाधि है। .. राज हो तो भी वह उपाधि, आकुलता है, आत्माका स्वरूप नहीं है। बाहरसे जितना भी आया हो, वह आत्माका नहीं है।
स्वयं आत्माका स्वभाव होनेसे अंतरसे जो सुख आये, वह सच्चा सुख है। स्वयं आये वह। ... आया नहीं है, लेकिन विचार करे तो बाहरमें कहीं सुख नहीं है। उसमें सुख नहीं है और स्वभावकी रुचि करे, प्रयत्न करे तो सुख प्रगट होता है। विचार करे कि सब विभाव दुःखमय है। अपना स्वभाव नहीं है। स्वभावके आश्रयसे सुख, परके आश्रयसे दुःख है।
मुमुक्षुः- आस्रवोसे निवृत्ति क्यों नहीं होती?
समाधानः- आत्माको पहचाने तो आस्रवोंसे निवृत्ति हो। अंतरमें आत्माको-ज्ञायकको पहचाने, भेदज्ञानकी परिणति हो, अन्दर विज्ञानघन स्वयंका स्वभाव है। उस विज्ञानघन स्वभावमें परिणति हो, उसमें जमती जाय तो आस्रवसे निवृत्ति हो। अंतरमें भेदज्ञान हो तो आस्रवसे निवृत्ति हो। अंतरमें विज्ञानघन स्वभावको पहचाने बिना आस्रवसे निवृत्ति नहीं होती। अन्दर भेदज्ञानकी परिणति विज्ञानघन दशा हुए बिना आस्रवसे निवृत्ति नहीं होती।
स्वभावकी परिणति प्रगट हो, स्वभावकी क्रिया प्रगट हो तो आस्रवसे निवृत्ति हो। ज्ञायकको पहचाने। ज्ञायककी श्रद्धा, ज्ञायकका ज्ञान और ज्ञायकमें अमुक प्रकारसे रमणता। विशेष रमणता तो मुनिदशामें होती है। विज्ञानघन स्वभाव बढता जाये, वैसे आस्रवोंसे निवृत्ति होती है।
मुमुक्षुः- .. वैरागी परिणति?
समाधानः- वैरागी परिणति जो अंतरमें होती है, वह दुःखरूप परिणति... परन्तु